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वह विशेष प्रकार के संस्कार पैतृक सम्पत्ति के रुप में पाता है। वह इतिहास को स्वयं में निरुपित करता है, क्योंकि उसने जीवन में अनेक प्रकार की शिक्षा तथा प्रशिक्षण को प्राप्त किया है। इसके अलावा वह अन्य लोगों को भी अपने माध्यम में निरुपित करता है, क्योंकि उनका प्रभाव उसके जीवन पर उनके उपदेश तथा उदाहरण के माध्यम से पडा है।
मानवीय चेतना में ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक चेतना का समावेश होता है। वह मनुष्य की विशिष्टता है जो उसे वातावरण के बारे में ज्ञान कराती है। इस प्रकार के ज्ञान को विचार शक्ति कहा जाता हैं। मनुष्य की सभी क्रियाओं में गतिशील प्रवृत्तियों का प्रमुख कारण चेतना ही है। चेतना की प्रगति सामाजिक वातावरण के साथ होती है। वातावरण के प्रभाव से मनुष्य नैतिकता और व्यवहार-कुशलता प्राप्त करता है। यह चेतना का विकास कहा जाता है। समय की गतिशील पृष्ठभूमि पर साहित्यकार की बदलती अनुभूतियों को युग चेतना के नाम से विभूषित किया जाता है। विकास की चरम सीमा में चेतना स्वतन्त्रता की अनूभूति करती है। वह सामाजिक बातों को प्रभावित कर सकती है और उनसे स्वयं प्रभावित भी होती है, परन्तु इस प्रभाव से वह अपने को अलग भी कर सकती है। डॉ० राम प्रसाद त्रिपाठी ने चेतना की इस प्रकार की अनूभूति को शुद्ध चैतन्य माना है।' साहित्यकार सामाजिक, राजनैतिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक स्वरुप से प्रभावित होता है ओर उसे उसी में प्राप्त कर साहित्यिक स्वरुप प्रदान करता है। यही साहित्यिक स्वरुप युगचेतना का साहित्य कहा जाता है, और यदि कवि है तो उसका काव्य युगचेतना का काव्य कहलाता है। साहित्यकार, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में मानव - जीवन से प्रेरणा ग्रहण करता है।
6 डॉ० राम प्रसाद त्रिपाठी - हिन्दी विश्व कोश, भाग-4, पृष्ठ - 182 7 डॉ० राम प्रसाद त्रिपाठी - हिन्दी विश्वकोश भाग-4, पृष्ठ - 283
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