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अध्याय-1
साहित्य और युग चेतना : अन्तर्सम्बन्ध
युग चेतना
'चेतना' शब्द अपने आप में बड़ा व्यापक अर्थ रखता है। यह 'बोध' या 'चैत्य' का समानार्थी माना जा सकता है । 'हिन्दी साहित्य कोश' में 'चेतना' को परिभाषित करते हुए लिखा गया है
'चेतन मानस की प्रमुख विशेषता चेतना है, अर्थात् वस्तुओं, विषयों, व्यवहारों का ज्ञान । चेतना की परिभाषा कठिन है, पर इसका वर्णन हो सकता है। चेतना की प्रमुख विशेषता है— निरन्तर परिवर्तनशीलता अथवा प्रवाह, इस प्रवाह के साथ-साथ विभिन्न अवस्थाओं में एक अविच्छिन्न एकता और साहचर्य । चेतना का प्रभाव हमारे अनुभव - वैचित्र्य से प्रमाणित होता है और चेतना की अविछिन्न एकता हमारे व्यक्तिगत तादात्म्य के अनुभव से । विभिन्न विषयों की अलग-अलग समय पर चेतना होने पर हम सदा यह भी अनुभव करते है। कि 'मैंने अमुक वस्तु देखी थी। यह हमारी चेतना अखण्ड और अविच्छिन्न न होती तो यह अनुभव हमें न होता। लेकिन यह अखण्डता और अविच्छिन्नता साहचर्य से ही सम्भव होती है। विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं में साहचर्य (अथवा आसंग) के द्वारा इतना घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाता है कि वे मिलकर एक चेतना का अंग बन जाती हैं। मानसिक संघर्ष, अत्यधिक दमन और भावात्मक आघातों से ये साहचर्य नष्ट भी हो जाते हैं । तब चेतना भी बिखरी - बिखरी सी हो जाती है और व्यक्तित्व खण्डित । चेतना में साहचर्य नष्ट होने की अनेक मात्राएँ हो सकती हैं, यदि कम मात्रा में हो तो कोई विशेष
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