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हुआ है। जहां पति के रूप मे ही श्रीकान्त का उस पर अधिकार है तथा वैसी स्थिति में वह पानी ग्रहण करने में असमर्थ है। इसी प्रकार
"सुनीता' में हरि प्रसन्न के प्रथम गृह प्रवेश के समय श्रीकान्त के कथन-'हरि चले आओ, अभी तो वह कोना बचा है। ठहरो-जाती कहाँ हो----और यह हरि प्रसन्न है' तथा सुनीता का कथन-'भला देखो इन्हें भी प्रसंग-सम्बद्धता से गहन अर्थ ग्रहण कर लेते हैं।
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में जहाँ लम्बे कृत्रिम संवाद उपलब्ध हैं, वहॉ स्वाभाविक, सहज, बात-चीत का आत्मीय संवाद भी है। एक ही संवाद में बिन्दु समूह के द्वारा चलती बात को अपूर्ण छोड़कर सहसा दूसरी और फिर तीसरी बात भर दी गयी है। जैसे प्रायः हम दैनिक जीवन में कहते हैं तथा बोलते हैं । ए...एक, दो....ओ...ओ देखो.....ठीक कहाँ बोलता है। यहाँ बोलता हूँ आगे-------90
न रूढ़ अर्थ में भारतीय होगा-खड़ी क्यों हो, बैठ जाओ --जो काम हो--अच्छा-अच्छा । हो तो वनानि को आशा है-----11
जहाँ संवाद आकार में छोटे हैं वहाँ वे बिहारी के दोहे के समान 'नावक के तीर' हो गए हैं। उनमें विचित्र चमत्कार देखने को मिलता है।
निम्न उदाहरण द्रष्टव्य है---- मैने पूछा-बरतन माँजना जानते हो?
'हाँ।
'कहार हो'
89 जैनेन्द्र कुमार-सुनीता, पृष्ठ-38-39 90 जैनेन्द्र कुमार-परख. पृष्ठ-64 91 जैनेन्द्र कुमार-अनन्तर, पृष्ठ-73
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