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उसका एक प्रधान कारण यह संवेदनशीलता ही है। मूलतः चिन्तक होने के कारण जैनेन्द्र जी कई बार मूल कथा तन्तु तोडकर भावुक होकर दार्शनिक चिन्ता में निमग्न हो जाते हैं । प्रायः ऐसे अंश दीर्घ हो जाते हैं और लघु निबन्ध का रूप ग्रहण कर लेते हैं । 'जयवर्धन' में तो यह प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर है और वहाँ पूरे के पूरे निबन्ध भाषण या पत्र रूप में मूल कथा में ठूंस दिए गए हैं, 'त्यागपत्र' में भी इसी प्रकार के लम्बे-लम्बे वक्तव्य आए हैं ।
कई बार ऐसा भी होता है कि कथावस्तु का चरम बिन्दु आ जाता है, कथा समाप्त हो जाती है परन्तु जैनेन्द्र जी पुनः प्रसंग को उठा लेते हैं। 'परख' में कट्टो और बिहारी का विवाह 'क्लाइमेक्स' बिन्दु है। उसके पश्चात् कथा को फैलाना अस्वाभाविक है ।
विषय-वस्तु की दृष्टि से जैनेन्द्र जी के कथा साहित्य में प्रेम-परिवार तथा व्यंग्य रूप से सामाजिक तथा क्रान्तिकारी तत्वों का समावेश हुआ है। कथावस्तु में वे सामान्यतः त्रिकोणात्मक प्रेम की स्थापना करते हैं। यह स्थापना दो पुरुषों तथा एक नारी को लेकर होती है किन्तु 'व्यतीत' अपवाद है । 'व्यतीत' में एक पुरुष तथा दो नहीं, कई नारियाँ है; जयन्त के विवाह के प्रसंग में बुधिया अपनी भावनाओं को प्रकट करती है। यह प्रसंग साधारण रोमांस की गन्ध देता है। 31
सामाजिकता का अंत कथा साहित्य की विषय-वस्तु में गौण तथा परोक्ष रूप से आया है । 'परख' में विधवा की समस्या आयी है जिसका समाधान लेखक ने आदर्श किन्तु अव्यावहारिक रूप से दिया है । 'सुनीता' में घर-बाहर की समस्या है। जिस पर डॉ० इन्द्रनाथ मदान ने रवीन्द्र के 'घर और बाहर' का प्रभाव देखा है। उनका मत है
31 जैनेन्द्र कुमार - व्यतीत, पृष्ठ - 36
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