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का शिकंजा है न भाव का। दोनों किसी क्रोड के नियमों में बँधकर नहीं रह सकते । '14
वस्तु शिल्प को सही तथा संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में जाँचने के लिए हमें जैनेन्द्र के कथा साहित्य की मूल संवेदना तक जाना पडेगा । जैनेन्द्र के कथा साहित्य की मूल संवेदना क्या है - यह उलझा हुआ प्रश्न है । यों सतही तौर पर देखने से लगता है कि जैनेन्द्र के साहित्य की मूल संवेदना शान्तिमूलक करुणा है । करुणा की यह संवेदना सदा दर्शन से आच्छादित रहती है। ऐसा लगता है कि जैनेन्द्र संवेदना के पूर्ण होने से पूर्व ही उसे अभिव्यक्त कर देते हैं ।
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में सिद्धान्त - निवेदन बहुत है । प्रायः सभी उपन्यासों तथा कहानियों का कथानक चिन्तनमूलक तथा दार्शनिक छाया से आपूर्ण है। उसमें तर्क-वितर्क तथा चिरन्तर का विवेचन - विश्लेषण है। जैनेन्द्र जी अपने कथा साहित्य में विराट प्रश्नों के प्रति जिज्ञासु हो उठते हैं जो अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक हैं ।
कथानक में प्रायः वाद-विवाद का आत्म-विवाद की शैली से जीवन और जगत् की समस्याओं के समाधान के लिए विचार हुआ है। इस विचार - तत्व की अधिकता के कारण ही उनके कथा साहित्य में निबन्ध के तत्वों का समावेश हो गया है। जैनेन्द्र जी ने चाहे किसी भी प्रकार की कथावस्तु चुनी हो उसके अध्ययन में कुशल हैं। उन्होंने कथा को कहने के लिए अनेक नाटकीय तथा मनोवैज्ञानिक कौशलों का प्रयोग किया है। कथा को आरम्भ करने की उनकी अपनी शैली है । कथा के आरम्भ के पूर्व वे प्रायः प्रारम्भिक या आरम्भिक का समावेश कर देते हैं जिसका उद्देश्य पाठक के लिए वास्तविकता की
14 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ - 3
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