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(परख) ऐसी ही स्त्रियाँ हैं। दोनों क्रमशः सहाय और सत्यधन की रुचि
और इच्छा पर आत्मसमर्पण किए अगाध निद्रा में लीन रहना चाहती हैं। राजश्री को नीलिमा से या गरिमा को कट्टो से कोई ईर्ष्या द्वेष नहीं हैं। गरिमा भी गौरवमयी पत्नी है कट्टों का स्नेह पाकर उसकी ईर्ष्या लुप्त हो जाती है। इन दोनों नारियों में जैनेन्द्र की उपलब्धि पत्नी धर्म की स्थापना की है। यों यही स्थापना जैनेन्द्र मृणाल (त्यागपत्र) कल्याणी (कल्याणी), सुनीता (सुनीता). मोहिनी (विवर्त) आदि के माध्यम से भी करते रहे हैं। जैनेन्द्र के पत्नी पात्रों में केवल चन्द्रकला (व्यतीत) ही ऐसी आधुनिका है, जो पति से अलग होकर पुनविर्वाह करती है और सुख भोग करती है। यहाँ पर जैनेन्द्र ने चन्द्रकला को दोष न देकर जयन्त को दोषी ठहराया है।
चौथा वर्ग है आदर्श और त्यागशील प्रेमिकाओं का, जिसमें कट्टों (परख) तथा तिन्नी (विवर्त) के नाम लिए जा सकते हैं। कट्टो ने सत्यधन से सच्चे मन से प्यार किया और तिन्नी ने जितेन से। दोनों में त्याग और समर्पण की भावना है। दोनों में से किसी ने भी कभी अपने प्रेमी से प्रतिदान की कामना नहीं की बस मौन प्रेम की साधना में लीन रहीं। आदि, मध्य और अन्त इन्होंने मात्र प्रेमार्पण में ही देखा, जैनेन्द्र ने अपने सभी उपन्यासों में केवल उदिता (अनामस्वामी) में एक नया प्रयोग किया है। समस्या यहाँ भी यौन की है। किन्तु मुक्त भोग के कारण जीवन में सार्थकता का नितान्त अभाव है। डॉ० मनमोहन सहगल ने लिखा है-“बालक का पिता कौन है, यह माँ भी नहीं जानती-प्रेम होना, छूटना, फिर होना, फिर छूटना यही जिन्दगी का क्रम है। अनव्याहे गर्भ का बोझ होना भारतीय जीवन की दृष्टि में पराजय है। उदिता के चरित्र में यह सब हुआ, सेक्स के असंयत
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डॉ. मनमोहन. सहगल - उपन्यासकार जैनेन्द्र : मूल्यांकन और मूल्यांकन, पृष्ठ - 72
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