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जैनेन्द्र ने भाग्य, कर्म तथा जीवन-मृत्यु के सम्बन्ध में अपने मौलिक विचारों का प्रतिपादन किया है। उनके पात्र अतिशय भाग्यवादी हैं। उनकी परम आस्तिकता उन्हें किसी भी समय भाग्य के घेरे से अलग नहीं करती। जैनेन्द्र ने कर्म परम्परा को पूर्व जन्म अथवा पुनर्जन्म की श्रृंखला से नहीं जोड़ा है। उनके अनुसार पुनर्जन्म तो होता है-यह बात सत्य है किन्तु यह कोई नहीं जानता कि पुनर्जन्म का पूर्व जन्म के कर्मों से सम्बन्ध होता ही है। उनकी दृष्टि में पुनर्जन्म की सत्यता केवल व्यक्ति के बार-बार जन्म होने में ही है। जैनेन्द्र के अनुसार मनुष्य के कर्म मृत्यु के पश्चात् उसके साथ नहीं जाते, वरन् यहीं व्याप्त हो जाते हैं। उनके अनुसार मृत्यु से जीवन की समाप्ति नहीं होती।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैनेन्द्र जी की दार्शनिक चेतना अत्यन्त उच्चकोटि की और महत्वपूर्ण है। दार्शनिक चेतना के परिणामस्वरूप उनकी कृतियों में नारी-पुरुष सम्बन्धों, अन्तःबाह्य परिवेशों तथा प्रेम और विवाह आदि सभी विचारधाराओं का समावेश हुआ है। जैनेन्द्र जी ने दार्शनिक चेतना के अन्तर्गत शाश्वत् सत्यों-ईश्वर, जन्म-मृत्यु, मोक्ष आदि के सम्बन्ध में आत्मानुभूत सत्य का प्रकटीकरण किया है। उनकी दृष्टि में ईश्वर सत्य ही नहीं वरन् वही एक मात्र सत्य है। जैनेन्द्र जी की ईश्वरीय आस्था उनके समस्त कथा साहित्य में श्रद्धा और आत्म-विश्वास तथा भाग्य-निर्माता के रूप में लक्षित होती है। उनकी दृष्टि में मोक्ष जगत् से मुक्ति नहीं है वरन् अहं से मुक्ति है। वस्तुतः संसार में रहकर भी व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
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