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जैनेन्द्र के कथासाहित्य में व्यक्ति का समस्त सोच-विचार व्यर्थ ही है। अतएव जैनेन्द्र के पात्र जीवन से जटिल परिस्थितियों में निराश होकर समाप्त नहीं होते, बल्कि स्नेह और प्रेम के द्वारा ही वह जीवन का विकास करने में समर्थ होते हैं।
निष्काम कर्मयोग
जैनेन्द्र के विचारों पर गीता के निष्काम कर्मयोग का प्रभाव परिलक्षित होता है । 'गीता' में अर्जुन को कर्मशीलता का उपदेश देते हुए कृष्ण ने कहा कि 'जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल में कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता । 24 जैनेन्द्र जी के अनुसार विधाता ही सर्वोपरि है। जैनेन्द्र ने बार-बार अपने साहित्य में इस सत्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है कि 'मैं नहीं हूँ × × × × × क्योंकि शून्य है x x x x x मै कुछ नहीं हूँ- - यह अनुभूति ही मेरा सब कुछ है। 25 उनके अनुसार इस प्रकार की भावना मनुष्य को कर्म से विचलित नहीं करती, बल्कि उसे कर्तव्य के अहंकार से अलग करती है। अतएव जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य का निर्णय मनुष्य की प्रगति में बाधा नहीं उत्पन्न करता, बल्कि उन्नति की ओर ले जाने का प्रयास करता है।
जैनेन्द्र ने अपने कथा साहित्य में पुरुषार्थ को भी प्रश्रय दिया है। भगवान को ही एक मात्र सत्य मानने के कारण जैनेन्द्र के पात्रों में मनुष्य के अहं भाव के दर्शन नहीं होते। उनके कर्म सम्बन्धी विचारों पर गीता की निष्काम-कर्म-साधना तथा कर्म-अकर्म की भावना परिलक्षित होती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'कर्म' में 'अकर्म' की भावना
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'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सगत्यक्त्वा करोति य. । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 5 / 10 25. जैनेन्द्र कुमार - जैनेन्द्र की कहानियाँ (तृतीय भाग), पृष्ठ- 126
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