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रहना चाहिये। जीवन कर्ममय है, अतः जैनेन्द्र जी के साहित्य में निष्काम भाव से कर्म करने पर जोर दिया गया है। अधिक विकास का अपने आप में महत्व आवश्यक है परन्तु शारीरिक भूख की पदार्थ जगत् में उपेक्षा नही की जा सकती। 'सुनीता' उपन्यास में स्पष्ट रूप से कर्म और योग के साथ संयम की जो महत्ता प्रतिपादित हुई है उसका उद्देश्य मनुष्य के विकास में योगदान देना है। मनुष्य का कल्याण इसी में निहित है कि वह जीवन की आवश्यकताओं को ठीक प्रकार से समझे
और उन्हें जीवन में उचित रूप से ग्रहण करे। जैनेन्द्र व्यक्ति और समाज में सामंजस्य आवश्यक मानते हैं। समाज से सामंजस्य बनाये रखना व्यक्ति का परम कर्तव्य है। व्यक्ति उसी सीमा तक स्वतन्त्र रह सकता है, जब तक कोई सामाजिक हानि नहीं करता, परन्तु जहां पर यह स्वतन्त्रता अराजकता की ओर अग्रसर होने लगे तो नियन्त्रण आवश्यक हो जाता है। जैनेन्द्र जी की मान्यता है कि परिणाम की चिन्ता किए बिना मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए, होता तो वही है जो विधि ने रचा है।
इस प्रकार जैनेन्द्र यह स्वीकार करते हैं कि कर्म करते रहना चाहिए और फल ईश्वर देता है। यही 'गीता' का 'कर्मयोग' है, जो जैनेन्द्र जी के कथा साहित्य में सर्वत्र अभिव्यंजित हुआ है। जैनेद्र जी के कथा साहित्य में नैतिक मान्यताओं और आचार-विचार का जो स्वरूप दिखायी पड़ता है, वह 'गीता' का सन्देश ही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार-विचार संबंधी नियम काल के परिवर्तन क्रम में परिवर्तित होकर रीति-रिवाज तो बन जाते हैं, परन्तु उनका अस्तित्व परम्पराओं के अलावा कहीं भी सुरक्षित नहीं रह सकता।
26 डॉ. देवराज – सस्कृति का दार्शनिक विवेचन, पृष्ठ - 296-297
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