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________________ भी। अधिक संख्या होने के कारण इनकी गणना नहीं की जा सकती। विभिन्न संस्कृतियों में जन्मे, पढे-लिखे व्यक्ति के रहन-सहन के जहाँ भेद मिलेंगे वहीं उनके खान-पान में भी कम विभिन्नता नहीं मिलेगी, उनकी यही विशेषता उन मनुष्यों की रूचियों, संस्कारों तथा प्रवृत्तियों में विविधता पैदा कर देती है और विविध संस्कृतियों का निर्माण कर देती है। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में सांस्कृतिक विभिन्नता का रूप देखा जा सकता है। जैनेन्द्र के 'परख' उपन्यास में कट्टो के द्वारा बनाये गये भोजन का वर्णन है। कट्टो गरिमा को खाने के लिए आमन्त्रित करती है वह उसके लिए सब्जी और गरम-गरम रोटियाँ सेंकती है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ भोजन की सामग्रियों में भी अनेक सुधार हुये और पौष्टिक आहारों का प्रचलन बढ़ा। आज के विकसित युग में खाने-पीने की अनेक वस्तुयें प्रयुक्त होती हैं जिनके नाम नहीं गिनाये जा सकते हैं। भोजन की अनेक सामग्रियाँ आधुनिक समाज में उपलब्ध हैं। जिनका अपनी रुचि के अनुसार प्रत्येक मनुष्य प्रयोग करता है। वैसे जैनेन्द्र जी ने अपने कथा साहित्य में खान-पान को विशेष महत्व नहीं प्रदान किया है। वेश-भूषा-श्रृंगार प्रसाधन वेश-भूषा का सम्बन्ध देश की सभ्यता से होता है, क्योंकि देशगत् विभिन्नता के साथ सभ्यता और संस्कृति बदलती है, जिससे वेश-भूषा में भी अन्तर आ जाता है। इसलिए कहा जाता है कि जैसा देश वैसा वेश। प्राचीनकाल के राजकीय वस्त्रों में शुभ तथा मंगल अवसरों पर मुकुट धारण किये जाने का रिवाज था, साधारण जनता सूती वस्त्र पहनती थी पर रईस लोग उत्सवों के अवसर पर रेशमी वस्त्र धारण करते थे। स्त्रियाँ सुन्दरता पूर्वक बनाये हुए कानों की बालियाँ, मोतियों की मालायें, मेखलायें और रत्नजडित चूड़ियाँ आदि [94]
SR No.010364
Book TitleJainendra ke Katha Sahitya me Yuga Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjay Pratap Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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