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होकर अपने व्यक्तित्व की रक्षा के लिए सचेष्ट रहता है और दूसरे स्थान में परिवार, समाज तथा जाति और राष्ट्र के साथ सम्मिलित होकर सभी के साथ वह ऐसा सम्बद्ध हो जाता है कि किसी भी स्थिति में वह अपने को सबसे पृथक् नहीं कर सकता। व्यक्ति समाज की इकाई है तो उसका व्यक्तित्व सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति है। हर व्यक्ति अपने में अकेला है और शायद यह अकेलापन ही उसकी वैयक्तिक उपलब्धि है। सामाजिक प्राणी होने के नाते इस वैयक्तिक अकेलेपन को लिए हुए भी समाज से जब तक जुड़ा है तब तक 'मैं' स्थित है। जैनेन्द्र ने औपन्यासिक शिल्प पर ही अपना विचार केन्द्रित किया है। मानव के मन और व्यक्तित्व की अपेक्षा उसके अन्तर्मन के निगूढ़ भावों की अभिव्यंजना अत्यन्त प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की है। ‘परख' में व्यक्ति प्रधानता के साथ उन्होंने उसके वैयक्तिक जीवन का चित्रण करते हुए, बाहर से भीतर की ओर जाने की प्रवृत्ति अपनायी। जैनेन्द्र जी व्यक्तिवादी चेतना के कथा साहित्यकार हैं। उन्होंने अपने कथा साहित्य में व्यक्तिवादी चेतना का समावेश किया है। जैनेन्द्र जी के व्यक्तिवादी दर्शन में चिन्तक के नये क्षितिज उत्पन्न हुए हैं। व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप में जीने का अधिकार है। व्यक्ति को समाज में रहकर दया, ममता, करुणा, प्यार और न्याय आदि प्रवृत्तियों का अनुसरण करना चाहिए। 'जयसन्धि' कहानी में एक स्थान पर यशोविजय कहता है - "वह समाज जहां व्यक्ति का कुल इतना प्रधान है कि प्रेम को व्यर्थ करता है, वह समाज जीर्ण है। व्यक्ति की मनश्चेतना की पर्तों में खोई हुई उसकी वास्तविक असहायता और विवशता का चित्रण किया गया है।
22 पदुमलाल चुन्नालाल बक्शी - हिन्दी कथा साहित्य, पृष्ठ -86 23 नई धारा - फरवरी-मार्च 1966, पृष्ठ - 115 24 डॉ० सुषमा धवन - हिन्दी उपन्यास, पृष्ठ-169 25 जैनेन्द्र कुमार - जैनेन्द्र की कहानियाँ (जय सन्धि), पृष्ठ - 169
2ssi० सुषमा करवरी-मार्च - हिन्दी के
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