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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग लो, दो। और थक जायो, तो अाँख मीच सो जाओ। जीवन की परिभाषा ही यह है । हम पिता से जीवन लेते हैं, पुत्र को जीवन देते हैं । पिता को हम कुछ नहीं देते, पुत्र हमें कुछ नहीं देता । फिर भी पिता को भी देना पड़ा, हमें भी देना पड़ा, पुत्र को भी देना पड़ेगा । इन सबको फिर लेना भी पड़ा था।-संसार का यही चक्कर है। यहाँ ऋण झूठ है, उऋणता भी झूठ है। जिससे लेते हैं उसे भला दे क्या सकेंगे ? और प्रापसे तो मैं लेता ही हूँ,-छुटपन से लेता आया हूँ। स्फूर्ति ली है, जिसे खर्चता हूँ उतनी बढ़ती है । तब इतनी दया करें कि रुपयों की बात न करें।
लीला को क्या आपने देखा है ? शायद मुझे कहना चाहिए, श्रीमती लीला । वह तब चली गई थीं जब आप यहाँ थे। पर नाम से तो जानते ही हैं । लेकिन शायद यह न जानते होंगे कि वह आपको खूब जानती हैं। मैंने जब कहा कि आप बम्बई जा रहे हैं तब वह मेरी तरफ देखती रह गईं। उनके मुह से धीमे से निकला 'बम्बई ?' और वह मुझे देखती ही रह गई। मानो बम्बई मायापुरी हो और आप इतने साधु कि वह आप के अयोग्य हो ।
मैंने कहा, "क्यों, उनके बम्बई जाने पर ऐसी हैरत में क्यों हो ?" वह बोली, "नहीं, कुछ नहीं ।"
मैंने तब बताया कि तुम उन्हें जानती नहीं हो । वह भला बम्बई अपने आप जाने वाले हैं । यह तो तुम्हारे इन सेवक पति श्याम बाबू की खातिर है कि सदानन्द कुछ महीने वहाँ रहेंगे।
वह साश्चर्य बोली, "तुम्हारी खातिर ?" मैंने कहा, "क्यों ? मुझे वह सगा छोटा भाई मानते हैं।" फिर वह धीमी पड़ गईं । बोली, "नहीं, कुछ नहीं।"
क्षणेक चुप रहने के बाद उन्होंने कहा, "छोटा भाई मानते हैं तो तुम्हारे विवाह में क्यों नहीं पाये ? तुम्हारे दुलाते-बुलाते तो यहाँ आते नहीं हैं, ऐसी ही तुम्हारी खातिर मानते हैं ?"