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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] छज्जे के कोने में लोटा लिए राजीव खड़ा है, और उससे अगले वाले . कमरे में ही कुर्सी पर उनकी (भाभी की) ओर से मुह फेरे मूर्तिमान संकल्प बने भाई-साहब स्थिर भाव से बैठे हैं।
भाभी ने कालीन पर खड़े-खड़े हाथ जोड़कर इशारे-इशारे में कहा, "राजीव, जानो। देखो, चले जाओ।"
किन्तु, हाय-हाय भाग्य, अब भी तो राजीव ने भाभी के उन अोठों पर स्मित की क्वचित् रेख पाई । अरे, अब भी तो व्यंग सर्वथा वहाँ से अनुपस्थित नहीं है। वह रेख अब भी तो बाँकी ही है। हाय, अब भी तो मानों वह चुनौती चुप होकर बैठी नहीं है; बुला ही रही है, बुला ही रही है।
राजीव ने कहा, "देखो, मैं ग़लीचा खराब करना नहीं चाहता। आगे प्रायो।"
भाभी ने अति संकटापन्न मुद्रा के साथ गुनगुनाकर कहा, "नहीं-नहीं, राजीव, हम पर रहम करो।"
रहम ? उन अोठों की संधियों में अरे, है भी कहीं रहम की दरख्वास्त ? क्या उसमें नहीं है कि मैं अपराजिता हूँ ? कि पुरुष के निकट स्त्री कभी भी पराजित नहीं है । अपराजिता ही में हूँ।'
राजीव ने कहा, "भाभी !" - उसी समय भाई-साहब ने इस ओर देखकर जाने कैसी वाणी में कहा, "क्या है ?"
स्वर होते हैं, जिनकी कोई श्रेणी नहीं होती। जिनमें एक ही साथ जाने क्या-क्या कुछ नहीं होता । जिनमें क्रोध होता है अपार, किन्तु जो सर्वथा शान्त और निष्कंप भी होते हैं। वज-दृढ़, किन्तु ह्रस्व घोष । उनमें एक ही साथ मन की वेदना होती है और रोष भी। उन्हें सुनकर आदमी को हिलना ही होता है ।
गूज उठी, "क्या है ?"