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राजीव और भाभी
३५ भीतर-भीतर जैसे उसे परिताप हो रहा था, भाभी के मुख पर ऐसी कुछ व्यथा की छाया थी।
"नहीं-नहीं' भाभी ने कहा, "हमें यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है । तुम जाओ।"
राजीव ने कहा, "भाभी, यह जादू का रंग है । अभी उड़ जायगा।" भाभी ने कहा, "नहीं, तुम जानो।"
अपनी स्वच्छ कमीज़ का पल्ला आगे पकड़कर राजीव ने कहा, "यह देखो" और उस पल्ले पर थोड़ा-सा रंग छिड़क लिया। "देखो, तुम्हारे सामने-सामने यह उड़ जाता है या नहीं।"
सचमुच, रंग तो नाम के धब्बे तक को वहाँ न रहा । राजीव आश्वस्त भाव से हँसा। भाभी ने कहा, "नहीं, नहीं, तुम जानो।" राजीव बोला, "भाभी !"
भाभी ने अनुनीत होकर कहा, "हमारे यहाँ गमी हो गई है। नहींनहीं, तुम जानो ।"
___ राजीव जिस उत्साह को लेकर यहाँ आया था वह तो अब उसे बिल्कुल छोड़ ही चला । उसने कहा, "भाभी, इस रंग से कपड़े बिल्कूल खराब नहीं होंगे।"
भाभी ने चुपचाप मुह फेरकर पान लगाना शुरू कर दिया। फिर मुड़कर पान की तह कर उसे देते हुए कहा, "यह पान लो राजीव, और तुम जानो, देखो।"
भाभी की वाणी में कुछ वह बात थी, जिसका राजीव तो उल्लंघन जीते जी कभी कर ही न सकता था। उसने कहा, “जाऊँ ?"
"हाँ, जाओ।"
"तो, लो, यह शीशियाँ । मैं इनका क्या करूँगा ?"-राजीव ने खिन्न भाव से हाथ फैलाकर उन्हें आगे किया।