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राजीव और भाभी
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विशञ्च ऊपर बैठे-बैठे मुस्कराए होंगे। कहते होंगे — 'देखो लड़के की बात ! अरे, हम फिर कुछ ठहरे ही नहीं ! जो ये दुनिया के छोकरे हमें बिना वूझे सब करने लगेंगे, तो हो लिया काम ।' और उन्होंने उस समय कौतुकपूर्वक प्रोठों ही मोठों में कहा होगा - अच्छी बात है, चिरंजीव राजीव ! तो लो, क्रीड़ा देखो ।'
मोटर सवा नौ पर आती, राजीव क्या देखता है कि उससे पहले ही चले आ रहे हैं- - डाक्टर सीताशरण । गुलाल से मुह रँगा है, और कपड़े तरबतर हैं ।
राजीव ने कहा, "क्या हाल है डाक्टर साहब ?"
डाक्टर ने बताया कि ये बालक बड़ी बला होते हैं । देखते तो हो कि क्या गति बना दी है। घर से अच्छा भला चला था, यहाँ श्राते तक खासा लंगूर हो गया हूँ ।
उसके बाद डाक्टर ने पूछा कि यह क्या है ? क्यों है ? क्या अकेला है ? श्रीमती कहाँ हैं ? छुट्टी हुई।
राजीव घर में बन्द छोड़ गई ? – चलो
राजीव ने कहा कि नहीं, ऐसी शोचनीय परिस्थिति नहीं है । फिर भी मायके गई हैं। तभी तो वह जरा चैन से दिखाई देता है ।
उस समय जेब में से डाक्टर ने चुपके से रंगीन पानी से भरी एक शीशी खींची।
राजीव ने किन्तु देख लिया, कहा, "हें - हें डाक्टर ! मुझे पार्टी में जाना है ।"
'डरो मत, ' डाक्टर ने कहा, "यह जादू का रंग है" और राजीव के बहुतेरा कहते-कहते और भागते-बचते डाक्टर ने उसके उजले कपड़ों पर रंग छिड़क ही दिया और मुहं पर जरा गुलाल भी मल दिया ।
"घबराओ नहीं राजीव, देखो रंग अभी ग़ायब हो जायगा ।" और सचमुच पानी सूखते - सूखते कपड़े पर जरा भी रंग का धब्बा नहीं रहा ।