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, प्यार का तर्क . १६७ "तो कुछ साथ लाये हो दिखाने को ? हो तो लामो, दे जानो।" मैं देख रहा था कि उसके कोट की जेब मामूली हालत में नहीं है और हाथ जरूरी से ज्यादे देर तक वहाँ अटका रहता है।
मैंने स्वीकृत-भाव से कहा, "लामो, लाओ, निकालो जो हो।" . वह घबराया हुआ-सा बोला, "प्राप को वख्त होगा ?"
"वख्त के सिवा यहाँ कुछ नहीं रहता है", उसके कोट की जेब की तरफ हाथ बढ़ा कर उसे थपकाते हुए मैंने कहा, "बड़े वो हो, हज़रत ! सकुचा क्यों रहे हो?"
असल में जब मैं कुमार को जानता था, यह देखे बिना न रह पाता था कि यह आदमी कितना भी बड़ा आदमी हो जाय, कवि बनना उससे जल्दी नहीं छूट सकेगा। शादी वह अपने समय पर नहीं कर पायेगा और बहुत काल तक अपने और विवाह के बीच में रोमान्स को चलाए ही जायगा। ____ऐसा था, तभी मैं कलकत्ते-जैसी काम-काजी लोगों की बस्ती में इस प्रकार आये हुए और पूरे तौर पर कामिन्दा दीखने वाले प्रादमी को बिना छेड़े नहीं रह सका।
मैं जानता था कि यह आदमी आसानी से काम-काज में चतुर हो सकता है, लेकिन एक जगह है, जहाँ अपने लिये उलझन बनाये रखना उसके लिये बहुत जरूरी है। _आखिर लाल फीते में बँधा एक पैकेट उसने जेब से बाहर किया और मेरे हाथ में थमा के यह कहता हुया 'शाम को पाऊँगा अमुक समय, वह तेजी से बाहर चला गया। .
कहने की आवश्यकता नहीं कि वह पैकेट प्रेम-पत्रों का था। किन्हीं पर केसर छिड़की थी, एकाध पर गुलाब की पत्ती रखी थी। दो-चार, छैआठ पत्र में देख गया । मालूम हो गया कि दूसरी ओर समर्पण उद्यत है और हर तरह की तत्परता। भागा भी जा सकता है, मरा भी जा