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टकराहट
कला-मतलब, चाह नहीं होती ? हाँ, चाह नहीं होती।
लीला-किसी तरह की चाह नहीं होती ? पुत्र की चाह, पति की चाह, प्रेमी की चाह ।
कला-नहीं, वैसी तो चाह नहीं होती। लीला-फिर भी समझती हो, तुम स्त्री हो ? कला-नहीं तो कौन हूँ ?
लीला-मैं नहीं जानती। पर तुम स्त्री नहीं हो। सच बताओ, कैलाश को तुम प्रेम नहीं करती ? ।
कला-प्रेम से अधिक करती हैं। लीला-फिर यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम जैसी हूँ ? । कला-ऐसी कैसी ? लीला-जैसी मैं । जैसी सब ? कला-वैसी ही तो रह रही हैं । लीला बहन, तुम क्या चाहती हो?
लीला-मैं चाहती हूँ कि तुम मान लो कि तुम तपस्विनी नहीं हो। चाहती हूँ कि मैं भी मान लू कि तुम वह नहीं हो, बिलकुल मेरी जैसी हो।
. कला-मैं बिलकुल तुम्हारी ही जैसी हूँ, लीला। बल्कि तुम से अपात्र हूँ। इधर तो मुझे तुमने लज्जित कर ही दिया है। ऐसी कठोर साधना तो...
लीला-मैं जो रात को तीन बजे उठ कर जाड़े में तमाम प्राश्रम । में झाडू देने लगती हूँ, इसको तुम साधना कहती हो।
[हँसती है ] “ कला-और क्या कहूँ। देखती हूँ, तुम्हें अपने तन की सुध नहीं है। इधर आश्रमवासियों को तुमने अपने कठोर श्रम से मोह लिया है । तुम्हारे व्यवहार की मिठास मैंने और जगह नहीं पाई। सब तुम्हारी प्रशंसा करते हैं । फिर तुम अपने से क्यों नाराज हो ?