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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग]
[कैलाश चले जाते हैं। उनके निकल जाने के बाद लीला माथे को धरती की घास पर डाल कर छाती मसोसती हुई कराहती हुई रह
जाती है।
तीसरा दृश्य [कला का कमरा । कला बैठी कुछ सी रही है। लीला का प्रवेश ।।
कला-लीला बहन, तुम ! क्यों, कैसे ? लीला-कुछ नहीं । अब मै अच्छी हूँ।
कला-मैं तुम्हारी तरफ ही आने की सोच रही थी। तुम्हें तो अभी चलने-फिरने से बचना चाहिए !
लीला-नहीं,अब में अच्छी हूँ । कल से फिर अपना काम ले लूगी।
कला-इतना अपने को थकामो मत, लीला ! या अपने से बदला लेना चाहती हो ?
लीला-और तुम जो इतना काम करती रहती हो ?
कला-मेरी और बात है। तुम तो सुकुमार हो। अभी नई हो। मैं अभ्यासी हो गई हूँ। मेरे मन में अब कामनाएं नहीं हैं। तुम क्यों अपने को खोती हो ? ____ लीला-में तुम-जैसी क्यों नहीं हो सकती हूँ। तुम भी कभी सुन्दरी थीं। प्रशंसकों से घिरी रहती थीं। अब भी कौन तुम्हारी आयु ज्यादा है ? और यह कैसी शकल बना ली है ?
कला-(मुस्करा कर) भाग्य ! लीला-भाग्य नहीं । सच बतायो ।
कला-और क्या बताऊँ। राग-रंग में मेरा मन नहीं था। बहुत भटकी, पर मालूम हुआ जो खोजती थी वह और है। वह क्या है ? भटक में यहां आ लगी तो अब जी नहीं है कि और भटक।
लीला-~-कभी तुम्हें विलायत की ज़िन्दगी की याद नहीं पाती ?