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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
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वागीश ने कहा, "तुम अन्धी तो नहीं हो ? मैंने कब तुम्हें रुपये दिए ? कैसे रुपये ? वह कोई और होगा । देखती नहीं हो, वह कैसी जगह है ? इसलिए मुझे होश रहते तुम यहाँ से चली जाओ; पर स्त्री ने कुछ नहीं सुना और रुपये डालकर उस कमरे की यहाँ वहाँ बिखरी चीज वस्तु सम्भालने में लग गई ।
वागीश से यह नहीं हुआ कि लातें मारकर उस स्त्री को वहाँ से निकाल दे, अगर्चे वह चाहता यही था ।
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वह स्त्री कमरे को ज़रा सम्भालकर थोड़ी देर में चली गई, लेकिन अगले दिन फिर नाई, उससे अगले दिन फिर उससे उससे अगले दिन फिर ।
खुद उस स्त्री के मुँह से वागीश को मालूम हुआ कि वह व्यभिचारिणी थी । वागीश की सहानुभूति में उसने जाने क्या देख लिया था । उसकी काम की मुस्तैदी सिर्फ वागीश का मन हरने के लिए थी । उस पर इक्कीस रुपये कर्ज़ होने की कहानी गढ़न्त थी । वह वागीश को रिझाकर उससे कुछ ठगना चाहती थी। वह बाज़ार में बैठ चुकी है, जेल काट चुकी है । इसी तरह और भी उसने अपने पाप की कहानियाँ सुनाईं।
जाने के दिन से उसने
लेकिन उस दिन इलाहाबाद से वागीश के मेहनत से काम किया है । वह सच कहती है कि उसने हराम का नहीं खाया, काम का खाया है । और उसी में से चालीस रुपये बचाए हैं ! उस स्त्री ने माथा धरती पर टेककर कहा कि ये रुपये अब वह वापिस नहीं लेगी ।
इस तरह तीन रोज़ वागीश के पागलपन, उसकी झिड़की और बदहवासी के बावजूद स्त्री प्रपनी पूरी पाप-कहानी सुना गई । तब चौथे रोज वागीश ने कहा, "सुनो, यह गिलास बोतल मोरी में पटक प्रानो ।