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, चालीस रुपये
था। जिसको अदालत का बल प्राप्त है, उसको दया देना उसका अपमान करना है । और वागीश कितना ही गिर जाय, इतना अधम नहीं हो सकता था कि दयनीय पर दया न करे अथवा सम्माननीय का अपमान करे।
पर हाय ! वागीश को दण्ड पाने का सन्तोष न मिला । वह चाहता था कि उसकी खूब फजीहत हो; उसने जो लेखकी और प्रसिद्धि का महा झूठ अपने चारों ओर रचा था, वह झूठ टूटकर धूल में मिल जाय; उसकी इज्जत चिथड़े-चिथड़े होकर कीचड़ में सन जाय। वह जेल पाये
और सख्त-से-सख्त अपमान पाये। उसे लौकिक कर्त्तव्य सब मिथ्या और अपने को दण्डित करने का ही एक परम कर्त्तव्य सत्य दिखाई देता था । इस समय उसकी हालत थी कि अगर सौ रुपये जबर्दस्ती कोई उसके हाथ में दे जाता तो वह सौ के सौ किसी राह-चलते अन्धे को दे देता । पर 'छाया' को पाई न भेजकर उस ओर से वह बेइज्जती ही चाहता था, उससे सस्ती कुछ वस्तु पाकर किसी तरह भी छूट रहना नहीं चाहता था। दुनिया'जब तक उसे पामर न देख ले और पामर न मान ले तब तक मानो उसे सन्तोष न होगा । क्योंकि अभिमान का पाप करने वाला इससे कम दण्ड के योग्य नहीं है। वागीश ! तू लेखक, ज्ञानी, नीति सिखाने वाला ! अरे दम्भी ! अब तू इसी अधमाधम नरक में पड़ !
- इस तरह की उसकी भावनाएँ थीं, और वह गाँधी की तरफ देखकर रोता और शराब पीकर हँसता था।
पर उसका चाहा कुछ न हुआ। क्योंकि एक दिन वह इलाहाबाद वाली स्त्री आई और उसने चालीस रुपये वागीश को लौटा दिये। वागीश ने उस पर डाँटा-डपटा, गालियाँ दीं, नोटों को फाड़ देने की धमकी दी। पर, औरत सब पी गई, और न वहाँ से टली न रुपये वापिस लिए ?