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चालीस रुपये
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ऐसी हालत में 'छाया' का पत्र पाया कि अब बहुत हुआ, कहानी दीजिए या रुपये लौटाइए। कहानी के नाम पर वह जल-भुन गया। कलेजे में आग लग रही हो, पर उसकी कहानी भी हो सकती है। शहर में आग लगती है और अखबारों के रिपोर्टरों की कहानी बनती है। अखबारी रिपोर्टरों का कहानी देने का काम आग में जलने वालों के जलने के काम से ज्यादा कीमती है, यह सच हो सकता है, पर जो जल रहा है, वही उस जलने के सौन्दर्य का बखान कैसे करे ? ज्वालामुखी अपनी तस्वीर को देखकर क्या कहेगा? उस तस्वीर का यही भाग्य है कि वह ड्राइंगरूम का सौन्दर्य बढ़ावे । नहीं तो कहीं अपनी ही असलियत के पास पहुँचने की वह तस्वीर हिम्मत करेगी तो पास तक पहुँच नहीं पायगी कि बीच ही में फुक जायगी।
इसलिए 'छाया' की मांग पर वह दाँत किसकिसा कर रह गया । ऐसा गुस्सा आया कि वह अपने को ही न काट ले । सोचा कि लिख दे कि चालीस रुपये के बगैर किसी की जान निकल रही हो तो तार देना, तब रुपये फौरन यहाँ से पायेंगे, पर उसने यह नहीं लिखा। क्योंकि उसको एकदम निश्चय हो गया कि चालीस रुपये के बिना या उसके एवज के बिना सचमुच मैनेजर की जान ही निकल रही है। वह चाहता था कि वह जान जरूर बचे, क्योंकि वह जान पैसे की उम्मीद में अटकी है। इसलिए वह आँखें फाड़-फाड़ कर सिर के ऊपर लगी गाँधी जी की तस्वीर और उसके पार छत में देखता था कि कहाँ से चालीस रुपये निकल पावें । वह जल्दी-से-जल्दी उतने रुपये 'छाया' को भेज देना चाहता था क्योंकि प्राण-रक्षा का सवाल था। पर ऐसी हालत और चालीस रुपये....!! ___ हराम का नहीं, काम का खाना चाहिए।'-मैं किस काम का खा रहा हूँ ? किस काम का खाता रहा हूँ ? क्या लेख भी काम है ? शोहरत काम है ?...असल में वह सम्भल कर फिर-फिर वहीं खड़ा होना चाहता था। लेकिन ज़मीन नीचे से बराबर खिसक रही थी। इससे