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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवाँ भाग ]
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परिणाम यह हुआ कि जिस किसी से वह उधार ले लेने लगा । लिया उधार लौटाने की उसे याद ही नहीं रहती थी । ऐसे लगभग एक साल हो गया ।
इस बीच 'छाया' के मैनेजर के नम्रता पूर्ण कई पत्र श्राये । पत्र पाकर वह हँस देता था, धीमे-धीमे पत्रों में विनय की जगह तकाजा श्राने लगा । तब भी उसने जवाब नहीं दिया । तकाजे में एक बार कुछ अविश्वास की गन्ध उसे मिली । उसने मैनेजर को लिखा कि चालीस रुपये क्या कभी तमाशे पर आपने खर्च नहीं किये हैं ? समझिए यह चालीस रुपये भी तमाशे में गये । और तमाशे को तमाशे की तरह आप देखें तो जितना बुरा हो, उतना ही बढ़िया कहा जा सकता है । अब कहानी मुझ से न मांगें, न रुपये । रुपये डूब गये और कहानी वाला भी डूब गया ।
खत लिखकर वागीश ने सोचा होगा कि छुट्टी हुई। पर मैनेजर की सज्जनता समाप्त होने वाली न थी । पत्र आया कि आपकी कहानी से पत्र की शोभा श्रौर प्रतिष्ठा बढ़ती है। रुपये की कोई बात नहीं । बीस रुपये और भेजे जाते हैं । कहानी श्राप से मिले, इसकी हिन्दी - जगत् को प्रतीक्षा है । पत्र पढ़कर वागीश ने तभी फाड़ फेंका और मनीआर्डर लानेवाले डाकिए को धमकाकर घर से बाहर निकल दिया ।
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ऐसे कुछ दिन और बीते । वागीश राह पर न आया। उसे भयंकर युद्ध करना पड़ रहा था। शराब की मात्रा काफी बढ़ गई थी । और अब सस्ते किस्म की शराब मिल पाती थी । इस बीच उसने गाँधी-दर्शन पर दो-एक निबन्ध लिखकर अखबारों में भेजे, जिनकी मर्मज्ञों में बहुत प्रशंसा हुई । उस पर और कइयों ने लेख लिखे । प्रशंसा के ऐसे सब लेखों को उसने टुकड़े-टुकड़े करके बाहर फेंक दिया । वह अब शराब से जब खाली होता, कमरे में गाँधीजी की तस्वीर की तरफ लगातार देखता रहता । कभी देखते-देखते रोने लगता । फिर उसके बाद बोतल खोल कर पीने लगता ।