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१८४ . जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग]
"कहीं नहीं।" "कहीं तो रहती हो?" "कहीं रह लेती हूँ।"
सच पूछो तो वागीश को बेहद बुरा लगा। वह जल्दी इस बवाल से छुट्टी पाना चाहता था। उसे सुध आई कि स्टेशन पर कुली और दूसरे लोग क्या सोचेंगे। यह ख्याल अब तक नहीं पाया था, अब आया तो सचमुच यह सब-कुछ बड़ा बेतुका लगा और शर्म मालूम हुई। सो अपनी काफी नसीहत खर्च कर गुमसुम हो रहा। वह जैसे इस बात को यहीं एकदम समाप्त देखना चाहता था। ऐसी ही गुमसुम हालत में था कि सुना, स्त्री पूछ रही है, "आप कहाँ जायेंगे, बाबू-साहब ?" ''कानपुर।"
जवाब में यह एक शब्द झटके से मुह से बाहर फेंक कर बिना उस ओर देखे वह अपनी जगह बैठा रहा। तांगे में वह कोचवान के बराबर मागे बैठा था। बच्चे को लेकर स्त्री पीछे बैठी थी। वागीश मन में मानता था कि तांगे-वाला जानता है कि यह औरत मेरे साथ नहीं है, ताँगे-वाले ने उनकी बातें सुन ली होंगी । तांगे-वाले की उपस्थिति के कारण बातें कुछ अतिरिक्त जोर से कही जा सकी थी।
कुछ देर बाद स्त्री ने पूछा, "वहीं रहते हैं ?" गुस्से में वागीश ने अत्यन्त संक्षिप्त भाव से कहा, "हाँ।"
कुछ देर चुप रहने के बाद स्त्री ने कहा, "कानपुर तो बहुत बड़ा है। वहाँ कहाँ रहते हैं ?"
वागीश ने असह्य बन कर कहा, "तुम चुप नहीं रह सकती हो ?"
स्त्री चुप हो गई, उसके बाद नहीं बोली। स्टेशन पहुँच कर तत्परता से वागीश ने कुली को बुलाया। उसके सिर पर सामान रखा और चलने को था कि कुली ने पूछा, "बस बाबू, सब सामान हो गया ?" - वागीश को सहसा याद आया और कहा, "ताँगे के वहाँ नीचे सूटकेस