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१७६ . जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवां भाग] कहा, "दूसरों के सिर पर पड़ना ठीक नहीं होता, न भीख मांगना ही ठीक होता है । तुम्हारे बदन में कस है और तुम काम कर सकती हो।
आवारा फिरने तुम्हें शर्म नहीं आती ? कहीं नौकरी देख सकती हो। मैं यहाँ से कल चला जाऊँगा।"
स्त्री फिर भी चुप रही। इस पर वागीश ने कड़क कर कहा, "खड़ी क्यों हो ? सुन लिया; अब जाओ, काम करो।"
यह कहकर उन्होंने अखबार खोला और स्त्री झाड़ देने लगी।
उस रोज़ स्त्री ने ग्यारह सेर आटा पीसा, घर के कुछ कपड़े भी घोये, झाड़ भी और ऊपर चर्खा भी काता।
यह सब-कुछ वागीश को खुश करने की जगह उलटे नाराज करता था। औरत उसके हिसाब के मुताबिक फ़ाहिशा, कामचोर और तेज़ जबान निकलती, तो उसे सन्तोष होता। सबेरे की अपनी बात-चीत के पीछे उसके मन में कोमलता आई थी। सोचा था कि दो-एक तसकीन की बात उससे करेंगे। पर दिन में फुर्सत नहीं मिली और शाम को आया तो मालुम हुआ कि स्त्री ने दिन-भर मुस्तैदी से काम किया है, बस इस एक बात से उसका मन बिगड़ गया। उसे बुलाकर ताकीद से कहा, "सुना न तुमने कि मैं कल जा रहा हूँ ? तुम्हें जो चाहिए सो कहो और मेरे दोस्त का पिण्ड छोड़ो। उन्होंने तुम्हारे खाने-पहिनने का कोई जिम्मा नहीं लिया है ! आज आटा पीसा ?"
स्त्री चुप रही। "सुनती हो; पीसा कि नहीं ? कितना पीसा ?" धीमे से स्त्री ने कहा, "दस सेर !"
आटा पूरा ग्यारह सेर तुला था, यह भाभी जी से वागीश को मालम हो चुका था, भाभी जी अधूरा काम नहीं करती थीं। साढ़े-ग्यारह सेर कह सकती थी। पर स्त्री ने बताया दस सेर ! सुनकर वागीश को गुस्सा चढ़ पाया। कहा, "दस सेर ! कुल दस सेर ? दिन-भर क्या करती रहीं ?"