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________________ , चालीस रुपये .. १७५ की बात का उसे खयाल आता था कि काम करना चाहिए। हराम का नहीं खाना चाहिए। कल से आज तक जो उसने किया वह काम है कि हराम है, यह ठीक तरह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। कल उसने शाम को मोटर में जाकर कुर्सी पर बैठ कर डेढ़ घण्टे तक एक सभापतित्व किया था । अन्त में कुछ बोला भी था। इस कष्ट के लिए उसे बहुत धन्यवाद मिले थे। वह काम है कि हराम है, यह जानना चाह रहा था। वह स्त्री बरामदे में झाड़ दे रही थी। अकारण वागीश ने गुस्से से कहा, "यहाँ आयो।" ___ स्त्री ने मुह ऊपर किया, प्रतीक्षा की और फिर मुंह नीचे डाल कर झाडू में लग गई। वागीश ने 'यहाँ आयो' कहने के साथ उधर मुह फेरने की जरूरत नहीं समझी थी और रोष-भाव से सामने के वगीचे को देखता रहा था। उत्तर को कोई पास नहीं आया तो उसने और भी धमकी से कहा, "सुना ? इधर आओ !" ___ इस पर झाड़ छोड़, धोती सिर पर सँभालती हुई वह स्त्री पास आ गई। घ घट इस बार अतिरिक्त भाव से आगे था । वागीश को बुरा लगा। उसके मन में हुआ छि यह पर्दा ही ऐबों को ढकता है। बोला, "तुम अब क्या चाहती हो?" __ स्त्री अाँखें नीची करके और उसके आगे धोती की कोर को एक हाथ से तनिक थामे चुप खड़ी रही, जवाब नहीं दिया।' "बोलो, क्या चाहती हो ? अब तुम जा सकती हो।" . स्त्री ने फिर कुछ जवाब न दिया। वागीश ने कहा, "देखो, मैं कल यहाँ से चला जाऊँगा । वह मेरा घर नहीं है, तुम देखती ही हो। इसलिए तुम यहाँ से आज शाम तक जा सकती हो।" जब देखा कि स्त्री अब भी कुछ जवाब नहीं देती है तो वागीश ने
SR No.010360
Book TitleJainendra Kahani 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1954
Total Pages217
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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