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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवाँ भाग ]
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“बस, मुझे और कुछ न चाहिए। मैंने तुमसे क्या मांगा है ? अब
माँगती हूं।"
दिनकर के भीतर से पिण्डाकार एक घनी व्यथा तक भर आई - "मुझे फाँसी लगनी है सुषमा । श्राज, अँगुली दिन गिना दूँ । ऐसे समय मुझ से तुम यही मेरी सुषमा ?”
उठी- वह गले
- चाहो तो
कल
कह सकती हो,
दिनकर की वाणी से सुषमा भीतर-ही-भीतर कांप गई - "मेरे राजा, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ | पर, राजा मेरे, तुम मुझे कैसी समझते हो ?" दिनकर को इस पर एक क्षरण उत्तर नहीं सूझा । रुककर उसने कहा, "कैसी समझता हूँ ? कैसी समझता हूँ ? ऐसी समझता हूँ कि ज़हर का प्याला दूँगा, उसको भी मुझे देखते-देखते खुशी से तुम पीओोगी ।"
सुषमा ने कहा, "यही तुम कहते हो ?"
दिनकर चुप ।
"यही तुम कहते हो ?"
चुप ।
"मेरे प्यारे, कहो, तुम मेरे राजा हो । और एक बार फिर कहो, यही तुम कहते हो ?"
"
दिनकर अपने में छोटे-में-छोटा होता गया और मानो सुषमा के स्वर ने किसी श्रोर उसके लिए मार्ग नहीं छोड़ा। उसने कहा, "सुषमा, में पति हूँ न, तब यही कहता हूँ ।"
धन्य, सुषमा ने दिनकर के चरण छुए । घूँघट हट गया, बोली, “भगवान् ऊपर सब देखता है । पर मेरे लिए तो तुम हो । भगवान् मेरे लिए और कौन है, शास्तर श्रौर कौन-सा है ? तुम्हीं तो सब कुछ हो । मेरे पास और कोई धर्म-कर्म नहीं है, मेरे मालिक !"