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जैनेन्द्र की कहानियाँ [ सातवाँ भाग ]
उस समय शीघ्रता से त्रिबेनी ने कहा, “जाना बिलकुल जरूरी
है ? - बिलकुल ?”
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"जरूरी ? — लेकिन मैं त्रिबेनी । इसलिए बिलकुल जरूरी है ।"
तुमको एक क्षण भी दुःख नहीं दे सकता,
इतने में पड़ोसिन का वह लड़का हेम 'चाची-चाची' कहता हुआ अन्दर आया और चार-चार पैसे का दही और रबड़ी और दो बीड़े दिखाकर बोला, "चाची, देख, मैं दौड़कर लाया हूँ । दही वाला कम देता था । मैं भला कम लेने वाला हूँ ? मेरा नाम है, हेम । मैंने कहा, और रख । उसने और रखा। मैंने कहा, और रख । वह इधर-उधर करने लगा | चाची, उसने समझा, मैं लड़का हूँ। मेरा नाम है हेम । मैंने कहा, रखता है या नहीं । चाची, रखवा के छोड़ा रखवा के ।— चाची, अब तुम्हीं बताओ, इस काम का मेरा एक पैसा हुआ कि नहीं ? क्यों चाची ?"
चाची त्रिबेनी ने कहा, "एक नहीं, दो । ला, यह चीज़ यहाँ मोढ़े पर रख दे। और देख, हेम भैया, चौके में से दौड़ के एक तश्तरी तो ले आ ।"
तश्तरी आ गई । सामान उस पर रख दिया गया। दो पैसे हेम ने पाये और वह उछलता हुआ भाग गया ।
त्रिबेनी ने अतिथि से कहा, "तो में खाना न बनाऊँ ।”
अतिथि ने आश्चर्य से कहा, "खाना ? खाना बनाने की सोच रही थीं ?"
"कहो तो न बनाऊँ ।”
अतिथि ने जोर से कहा, "नहीं बिलकुल नहीं। मैं मानता हूँ, मैंने गलती की, में आया । मैं नहीं खाऊँगा । में नहीं खा सकता। मैं इसी गाड़ी से चला जाऊँगा ।”
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त्रिबेनी उसे देखती रही। बोली, "तो इन चीज़ों को वापस कर