________________
१४०
जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] "मालूम नहीं । देर भी हो सकती है।" "कितनी देर ?" "मालूम नहीं।" "अच्छा, तो मैं चलू। मिलना था। मुझे इसी गाड़ी से जाना
"पाप मास्टरजी से ही मिलने आये थे ? वह तो हैं नहीं।"
व्यक्ति कुछ देर त्रिबेनी को देखता रहा। वह भी देखती रही। सहसा वह बोला, "मेरा ताँगा खड़ा है। तांगे वाला इन्तज़ार करता होगा।"
त्रिबेनी ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप खड़ी रही। जब देखा कि उसे बोलना ही होगा, नहीं तो कहीं यह आदमी प्रत्याशा से उसे देखता ही न जाय, तब बोली, "मैं क्या कह सकती हूँ। आप आये हैं । जाना चाहें तो रोकने वाले मास्टरजी होते, वह हैं नहीं । क्या उनके नाते मैं रुकने को कह सकती हूँ ?"
व्यक्ति ने कहा, "त्रिबेनी, हम सच क्यों न बोलें ? सच यह है कि मुझे मालूम नहीं। और अब तो कल मुझे कानपुर ज़रूर पहुँचना है। यह आखिरी गाड़ी है । मुझे जाने दो, त्रिबेनी !"
त्रिबेनी ने कहा, “जाम्रो न । मैं क्या कुछ कहती हूँ ?" "लेकिन तुम नाराज़ तो नहीं हो ?" नाराज़ ! नाराज होकर क्या कर लूगी ?"
"देखो त्रिबेनी, इसीसे मुझे और भी चलना चाहिए। लो, मैं चला ।"
व्यक्ति कुर्सी से उठा । त्रिबेनी दरवाजे की राह छोड़ अलग हो गई। जैसे किसी की राह के बीच में होकर खड़ी होने वाली वह कौन है ?-वह कोई नहीं है। पति की पत्नी है और पति इस समय नहीं है।