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१२४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग]
मैंने कहा, "इसके सिवा कि हम अपने घर में जगह दें, दूसरा कुछ करना न करने से खराब होगा।"
अपने घर में लाने की बात वह सुनने को तैयार न थीं। ऐसे दिन कटते चले गए।
एक दिन मैं देर से लौटा। मित्र मिल गए और सिनेमा ले गए। ऐसी देर भी नहीं थी, साढ़े-नौ का समय होगा । पर दरवाजा खट-खटा रहा हूँ और आवाज लगा रहा हूँ, लेकिन ऊपर किसी को कुछ खबर ही नहीं है। इस प्रयत्न में मुझे पाँच-सात मिनट हो गए। मुझे बेहद बुरा मालूम हुआ। इतने में सामने के चबूतरे से आवाज आई, "बाबूजी, आप खड़े क्यों हैं, यहाँ आजाइए।"
एक-आध बार तो मैंने टाला । पर यह सोचकर कि इसमें वह अपना अपमान न समझे, मैं उसके पास जा बैठा। उसने कहा, "बहू-बेटियाँ हैं, आँख लग गई होगी। आप यहाँ पाराम से बैठ जाइए। फिर कुछ देर में आवाज दे लीजिएगा, आ जायेंगी।" ___बातों-बातों में उसका इतिहास मालूम हुआ। दो उसके छोटे भाई हैं। इन्हें उसी ने पाला-पोसा है, ब्याह किया है। उसकी पान की दूकान थी। चलती थी। फिर उसमें टोटा प्राने लगा। पैसा देता रहा तब तक भाई उसके थे और उनकी बीबियाँ भी उसे मानती थीं। भाई दो पैसा लाने लगे और दूकान उठ गई तो अब उसे यहाँ पटक रखा है। न दवा है न दारू है। ऊपर से ताने और सुनाये जाते हैं। दो वक्त खाने का भी ठीक नहीं।
खखार डालने के लिए राख का एक मिट्टी का बर्तन पास था, फिर भी वह आदमी इधर-उधर खखार देता था। वह दुबला था, पीला और कनपटी की हड्डियां बहुत उभरी हुई थीं। आँखें अन्दर धंस गई थीं। सब मिलाकर दृश्य रुचिकर न था।
भाइयों की और उनकी बीबियों की उसने सख्त शिकायत की। वे