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________________ मित्र विद्याधर जी जब हारता-सा है और ताकत चाहता है, मैं अपने मित्र विद्याधर के पास पहुँच जाता हूँ। वह नगण्यों में नगण्य है: पर अपने लिये जिन थोड़ों को मैं गिनता हूँ, उनमें उन्हें अवश्य गिनता हूँ। बी० एस-सी० किया, एम० ए०, एल-एल० बी० किया, उसके बाद एम० बी०, बी० एस० भी किया। फिर छक गये। आगे और कुछ करने की भूख नहीं रही। पास खाने-पीने को था, और स्वभाव मननशील पाया था। उसके बाद बरसों-बरस घूम कर और बैठ कर, बहुत कुछ देखा, छाना, और पढ़ा। इस सब के परिणाम में आज वह सैंतीस वर्ष से ऊपर के हैं, बिनब्याहे एकाकी हैं, और एक प्रचार-संस्था के अवैतनिक उपमन्त्री हैं। सभा के दफ्तर में आकर पाँच-छः घण्टे मनोयोग-पूर्वक चिट्ठीपत्री की लिखा-पढ़ी करते रहते हैं। और वह कुछ नहीं हैं, और कुछ नहीं करते। ___उन्हें बुद्धिमान कहूँ, तो कैसे कहूँ। और मूर्ख भी वह नहीं हैं। उनकी आँखें भर-पूर खुली हैं। वह दुनिया में ऊँचा-नीचा सब देखते हैं । फिर भी सब-कुछ होकर न-कुछ बने रहने में उन्हें अप्रसन्नता नहीं हैं। उनके मन के भीतर की आकाँक्षा को कोई ७६
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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