SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] बंगला के रवीन्द्र को मैंने मूल में पढ़ा है । मराठी - गुजराती भी थोड़ी जानता हूँ | हिन्दी मातृभाषा ही है । - इस बारे में तो शायद लोग मुझ से ईर्ष्या कर सकते हैं। ७८ उन्होंने हँसकर कहा, "श्रोः, तब बाकी क्या रहता है ? बेशक यह सौभाग्य भी हो सकता है । शायद सौभाग्य है, अगर आप उसे दुर्भाग्य न बनाएँ ।... एक काम कर सकिएगा ? है मुश्किल, लेकिन उतना ही जरूरी भी है । वह यह कि जानते रहिए आप सब कुछ, लेकिन भूल जाइए कि आप जानते हैं। क्या यह हो सकता है ? ऐसा हो तो मैं आप से ईर्ष्या करने लगूं। यही मैं अपने से चाहता हूँ, भूल जाऊँ कि मैं कुछ जानता हूँ । अरे, इस अनन्तता की गोद मैं मैं किस चीज़ को क्या जानूँगा ? मैं इस महापूर्णता के शून्य क में प्रस्फुटित होते रहने के लिए अपने को छोड़ दूँ, इससे बड़ी क्या सार्थकता है ? इस से बड़ा ज्ञान भी क्या और है ? इसलिए जो मैं अपने से चाहता हूँ, वही चाहूँगा कि आप अपने से चाहें । " 1 मैंने देखा, वह आदमी गद्गद होने के निकट आ गया है । प्रतीत हो गया कि यह आदमी कहानी - लेखक होने योग्य नहीं है, मात्र बेचारा है । मेरे मन में इच्छा हुई कि मैं दुनिया को बताऊँ कि वह भूलती है। जिसको कहानी-लेखक उसने माना है वह तो कुछ बेवकूफ-सा आदमी है। राम-राम, कहानी जैसी मनोरम चीज़ और वैसा भोला- सा आदमी उसका स्वामी ! छिः छिः, यह कल्पना भी विडम्बना है । और मैं सोचता हूँ, “मैं क्या कम योग्य हूँ कि कहानी मेरा वरण न कर ले । शायद अब तक मैं स्वयंवर के बीच आया ही नहीं । नहीं तो कैसे हो सकता है कि कहानी नतमस्तक होकर अपने दोनों हाथों से अपनी जयमाल मेरे गले में न डाल दे ?" और, मैं स्वयंवर के दर्शकों को सूचना देना चाहता हूँ कि मैं वहाँ उतरने को उद्यत हो गया हूँ और कहानी को अब चिरकुमारिका रहने की आवश्यकता नहीं है ।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy