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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] राह कुछ भर तो जा सकेगी। उसे तब कुछ आराम मिलेगा। उस पत्थर को दिल में रखकर जो बाजार में उसे हर आते-जाते स्त्री पुरुष के सामने हँसते रहना हड़ता है, उस बेदर्द व्यापार से उसका जी भरकर ऐसा भारी हो पाया है कि कहीं कुछ आँसू ढालकर हलका हो रहने के लिए व्याकुल है । वह बहुत देर तक कहता तो रहा कि वह उसकी 'कोई नहीं है, कोई नहीं है, किन्तु जब उसे कहना ही पड़ गया, तब नदी के रुके हुए वेग की तरह फूटकर वह बह निकला। मैं भी उस समय सँभल न सका! ___मैं आपको कष्ट देना नहीं चाहता। इसलिए, उस बात को आवेश से और भाव से हीन करके इतिहास के सत्य की भाँति कोरी-कोरी सुना दूंगा। ___ वह स्त्री उसकी ब्याहता थी। वह बनारस के पास एक गाँव में रहता था । वैश्य है, मामूली तौर पर सम्पन्न था। अपने सादा ढंग से रहता था। स्त्री बड़े घर की नहीं थी, मामूली थी, इसलिए, उसके जी में अच्छा खाने-पहनने का चाव बहुत था । उसके पति का चलन बदलने में न आता था। वह इन बातों को अच्छा नहीं जानता था, पर स्त्री को बड़ा प्यार करता था। उसी गाँव में था एक पनवाड़ी। वहाँ से घर में पान आया करते थे। जब पनवाड़ी ने जाना कि पति पान नहीं खाता, पत्नी ही पान मँगाया करती है, तब एक दिन उसने चाँदी का वर्क लगा पान भेजा। पानवाला खूब सजावट से रहता था। प्रारम्भ इस तरह से हुआ, अन्त यह हुआ कि पत्नी एक रोज घर में न पाई गई । पानवाले का भी गाँव में पता न मिला । जेवर सब ले गई थी, दुर्भाग्य से ये कुछ रह गये थे। ये उस समय वहाँ न थे। तब से वह जगह-जगह डोलता रहा है। मकान, जमीन सबसे छुट्टी लेकर, उन सबको नकद रुपया बना कर जाने कहाँ-कहाँ घूम आया है । पर नतीजा
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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