SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] गठरी उससे देर में खुली । खोल कर कपड़ों की तह की भी तह के भीतर कुछ देखने लगा। देर लगती देख मैंने कहा, "वहाँ भी पान का ही काम करेगा ?" "हाँ जी" उसने कहा, "जिन्दगी के अखीरी दिन तक यह काम करता रहूँगा। हाथ-पैर नहीं चलेंगे, तब छोड़ दूंगा।" मैंने पूछा, "अब ऐसे भेस से करेगा ? पहले तो ऐसा नहीं रहता था।" उसने कहा, “ऐसे भेस से क्यों करूंगा, पहले से भी अच्छे भेस से करूँगा । ऐसे भेस से पान का काम करना होता तो घूमता क्यों फिरता, बाबूजी !" मैंने कहा, "तो वह ठाठ उसी वक्त के लिए है ?” . लेकिन उसने मेरी बात सुनी नहीं, क्योंकि तभी उसकी इच्छित वस्तु कपड़ों में मिल गई थी। उस डिबिया को खोल कर मेरे सामने करते हुए कहा, "बाबूजी, यह रख लीजिए।..." ___ मैंने देखा, सोने के चार-पाँच जेवर हैं । नये हैं, और कीमती हैं। __मैंने सोचा, जाने क्या संकट यह श्रादमी मेरे ऊपर लाने वाला है । मैंने कहा, “बेचते हो इन्हें ?-मैं नहीं लेना चाहता।" ___ "नहीं, नहीं" उसने कहा, “बेचता नहीं। इन्हें बेचूँ तो नरक में जाऊँ । इन्हें आप रख लीजिए।...” ___मैंने कहा, "मैं क्या करूँगा इनका ?" वह बोला, "मैं अभी बताता हूँ।" मैंने कहा, "मैं नहीं रख सकता । पराई चीज़ मैं नहीं रखता। ऐसा ब्योहार मैं नहीं करता।" उसने कहा, "बाबूजी, रख लीजिएगा तो बड़ी दया होगी। जाने घूमते-घूमते मेरी आँख कब मिच जाय। इन्हें लिये-लिये मैं
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy