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________________ पानवाला ५३ तुम भी ले लो एक बड़ा अच्छा है । एक और लगा देना, भई । " मैंने कहा, "नहीं; मुझे नहीं लेना..." पानवाले ने पान तैयार करते-करते मेरा जवाब सुनकर मेरी ओर देखा, मानो वह मेरी अनुदारता पर विस्मित है । मैंने कहा, "और तुम लोगों ने इतनी देर लगा दी ! घर नहीं चलना है क्या ? ले - लाकर खतम करो, जल्दी चलो ।” बहिन ने इत्र लगते हुए पानों की तरफ देखते " चलते हैं ।" हुए कहा, मैंने कहा, "चलती क्या हो, चलो ।" उन दोनों के पान लेने पर मैं फिर नहीं ठहरा । सीधा चल कर घर आया । मैंने कर लिया, मैं पानवाले से बिलकुल सम्बन्ध नहीं रक्खूँगा । कभी उसका पान नहीं खाऊँगा । कम्बख्त इतनी हिम्मत रखता है ! भूखा है, तो इस तरह नदीदी आँख कहीं-कहीं डालता फिरेगा। और इन्हें भी तो देखो, इन्हें उसका पान बड़ा स्वादिष्ट लगता है ! शान्त घण्टों में जब सोचता हूँ तो इसमें तो मुझे सन्देह नहीं रह जाता कि वह बिचारा भूखा इतना है कि भोज्य सामने देखकर अपनी दृष्टि को थामा उससे नहीं जाता । वह क्या करे ? भूख असह्य हो जायगी तो भूखा चुराए बिना कैसे रहेगा ? और बाहर भूख मिटाने के सामान न करके जो सरकार जेलखाने खड़े करेगी, उनके अन्दर ले जाकर सही, भूखे की भूख तो मिटानी ही पड़ेगी । नहीं तो भूखे की भूख उसी को खा जायगी । लेकिन, जब अपने सम्बन्ध की अपेक्षा उस पानवाले की निगाह की याद आती है, तो जी में आता है उसकी आँख फूट जाय । के चाँदनी चौक में गया तो वह पानवाला उस तरह
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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