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________________ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] मैंने दो पैसे देते हुए कहा, "दिन में कितना कर लेते हो ?" बोला, “जी, आपकी मेहरबानी से गुजर हो जाती है।' मैंने कहा, "अच्छा, हम रोज़ तुम्हारा पान खाया करेंगे। अच्छी लज्जत देता है।" मैं हँसता जाता था। उसके ओठों के वक्र में जैसे धन्यवाद था । वह भी मुस्करातासा था। ___ उसने एक बार कहा, 'प्वाइन बिनारिस' और जब देखा कि कोई गाहक नहीं है, आगे बढ़ लिया। खरीद के बारे में जरा शिथिल होकर मैं इस पानवाले के तमाशे को देखने लगा । जिधर से जाता था, एक बार तो राह चलता आदमी भी आवाज सुनकर इसे देखने लग जाता था। मैंने देखा, जहाँ किसी अच्छे कपड़े वाली स्त्री को देखता है वहीं पहुँच कर और भी अदा से कहने लगता है, "प्वाइन आ'ला प्वाइन!" मोटर में यदि एक भी स्त्री हो, उसके पास पहुँच जायगा, कहेगा, "बिनारसी प्वाइन !" मुझे बड़ी हँसी आई । बहुत बुरा भी लगा। मन में सोचा, बड़ा शरारती आदमी है । फिर ठहर कर सोचा, जान पड़ता है, बड़ा भूखा है । नहीं तो निर्लज्ज होकर ऐसा न करता फिरता । मेरे देखते-देखते फिर वह इधर-उधर न जाने किधर ओझल हो गया। मैं भी घर चला आया । मैं रईस नहीं हूँ। पर जंचाव बुरा नहीं रखता । ऐसा भी क्यों रहा जाय कि लक्ष्मी आए भी तो डर के भाग जाय । लक्ष्मी-पति नहीं हूँ इसी से ऐसा रहना पड़ता है कि लक्ष्मी आए तो लुभाकर
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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