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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] हुए हैं। दो लड़कियों के हाथ पीले कर ही चुका, बाकी दोनों के ब्याह में दो-दो ढाई-ढाई हजार और लगाना है । वह भी हो जायगा। लड़कों के लिए दो अलग मकान बनवा दिये हैं। अपना फर्ज इतना ही कर देना है। आगे की भगवान् जाने । वे हैं और उनका भाग्य । अजी कौन किसका करता है । सब अपने करम का खाते हैं । जितना हो सका कर दिया है । और अपना क्या है । दो साल और रहा तो बीमे की रकम भी पक जायगी। आठ हजार वह हो जाएँगे। यह सब बाल-गोपाल का ही समझिए । हमें अपने लिए अब क्या करना है ? दो रोटी और राम का नाम ।"
मैंने पूछा, "आपकी पेन्शन पैंतीस रुपए है न ? फिर यह सब आपने कैसे बन्दोबस्त कर लिया ?"
वह हँसे नहीं, रुष्ट भी नहीं हुए, उन्हें जैसे विस्मय हुआ और उन्होंने कहा, "तनख्वाह बीस से ही शुरू हुई थी, लेकिन उसी के भरोसे कौन रहता है ?"
मैंने कहा, "रेल में इतनी आमदनी है ?"
बोले, “करने वाले के लिए सब जगह रास्ते हैं । अनसूझते के लिए क्या कहा जाए ?"
मैंने कहा, "तब तो आप बेफिक्र हैं ?"
बोले, "जी हाँ, मैं किसी खटराग में नहीं हूँ। दुनिया देखी, सब माया है । सब परपञ्च है । जितना मोह करो, उतना ही वह खाने आता है। और कुनबे वाले क्या ? सहाई क्या ? अपना असल में कोई भी नहीं है । सत्त नाम ही अपना है और कुछ साथ नहीं जाता।"
मैं सजन की ओर देखने लगा। वह हर भाँति सम्भ्रान्त और शीलवान् दीखते थे । देखते ही उनके प्रति आदर होना स्वाभाविक था। उनके जीवन में और उनके मन में शंका का कीड़ा कहीं न