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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग]
पत्नी को नाराज होने का कारण न था । उन्हें तो एक तरह का वैसा कुछ सन्तोष मिल रहा था, जैसा बालक को बोलने वाले खिलौनों को पीच कर उन्हें बुलवाने में । अन्तर यह था कि बालक को ज्ञान नहीं होता कि उसके दबाने और पक्षी के बोलने में क्या सम्बन्ध है, और महिला ऐसी बातें सुनने ही के लिए छेड़ रही थी। वह यह तो जानती ही थीं कि अब पति के लिए साधु को मारना उतना सम्भव, आसान और प्रिय कार्य न होगा । जैसे पति का क्रोध पत्नी को शारीरिक प्रहार देकर तुष्ट होता था, वैसे ही उसके एवज में, उसी का लगभग समकक्ष, पत्नी में एक स्त्रियोचित भाव था, जो पति की यह मानसिक कुलबुलाहट और आक्रोश देखकर तुष्टि पाता था, या यह कहिए कि अबल का क्रोध था जिसका जहर निकाल डाला गया था।
पत्नी फिर और नहीं बोलीं । और पति उस भिखारी की ओर अत्यन्त उपेक्षा और निश्चिन्तता के कारण नहीं, उसके कल फिर आने की सूचना में अत्यन्त व्यस्त-ग्रस्त और चिंतित होने के कारण, कुछ नहीं बोले । और खाना खाकर, दरवाजे के बराबर वाली अपनी बैठक में आकर बैठ गये ।
यह फकीर कहाँ का आ गया ? स्त्री के साथ अब वह ठीक तौर पर बातें करने लायक भी नहीं रहे । उसके साथ जो अभिन्न हेल-मेल का सम्बन्ध था, उसमें तनाव आ गया है। वह मानो अब जम गया है, और बर्फ की नाई बीच में पड़कर उन दोनों में ऐसा व्याघात उपस्थित करता है कि समझ नहीं पड़ता कसे टूटेगा। इस अन्तर को बीच में पाकर ऐसा लगता है कि उनकी स्त्री उस पार है और वह इस पार । पहले घुले-मिले, अभिन्न एक दूसरे के प्रति सर्वथा प्रत्यक्ष और खुले थे न जाने कैसे थे ? अब जैसे वह अलग हो गई है और यह अलग रह गये हैं। और दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हुए जा रहे हैं।... एक राह चलते