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________________ साधु की हठ १६ । फ़ैसले को काट रही हों उनके फैसले का आधार था कि साधु बदमाश है, बदनीयती से आया था। यह बातें इसके खिलाफ जाती मालूम होती हैं। उस आधार पर आघात करतीं और उसे खिसकाती हैं। स्त्री ने कहा, “सुनो। तुम चाहे कुछ समझो, वह साधु वैसा नहीं है। वह कहता था कि वह तुम्हारे हाथ से ही कुछ लेगा । जब तक तुम उसे नहीं दे दोगे, तब तक किसी से कुछ लेगा ही नहीं। वह तो ऐसा है और तुम ऐसे हो कि जरा-सी बात पर उसे इतना मारा और मुझे इतना मारा । जरा-सी बात पर गुस्से हो जाते हो ।... " “हाँ, हो जाता हूँ गुस्से..." "लो, इतनी-सी ही बात पर बिगड़ने लगे ।" “हाँ बिगड़ने लगा । तो तुम्हारा क्या ? तुम्हारी सीख तो खतम हो गई !” “मैं सीख क्या दूँगी ? खुद सोचोगे, तो यही ठीक लगेगा । यों बिगड़ने लगना अच्छा नहीं होता ।" "बस ख़तम करो, यह पचड़ा । बहुत हुआ । आराम से खाने भी नहीं दोगी ?" "फ़कीर कह गया था कि वह कल फिर आयेगा । जब तक तुम्हारी यह आदत नहीं छूटेगी, तब तक श्राता रहेगा । वह तुम्हारे सिवा और कहीं से भीख नहीं लेगा ।" बार-बार यह फ़कीर का राग सुनने को पति तैयार नही हैं । माना वह ठीक होगा; पर दुनिया की और कोई बात ही नहीं रही उसके अलावा, जो उन्हें इस तरह तंग किया जा रहा है। बोले"नहीं लेगा, बस ! मर जायगा । —हाँ, फकीर, फ़कीर ! क्रकीर क्या हो गया बला हो गई !” इस तरह अपने को खुले रूप में प्रकट करके चुप हो गये ।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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