SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व' गंवार २२३ : ३ : विद्याधर ने कहा, "देखते हो ? अब तुम अपनी बात शुरू कर सकते हो ।" किन्तु, मैं अपनी बात शुरू नहीं कर सकता था । मन की स्थिति वह नहीं रह गई थी। मुझ पर असर पड़ा था । मैं जानना चाहता था कि क्या लेकर उस गँवार में यह पागलपन उठा है कि रुपये दे डालना चाहता है, पास नहीं रखना चाहता । और इस जमाने में सौ रुपये जैसी रकम को प्रतिमास दे डालने का सामर्थ्य और गौरव अपने पास रखते हुए भी वह किस भाँति इतना गौरवहीन, गर्वहीन, विनयावनत हैं कि जूतों के पास बैठता है, रिरियाकर बोलता है, ऊपर आँख मिलाकर नहीं देखता । यह मात्र अज्ञता है ? मज्जागत निम्नता है ? - क्या है ? और जो भी है, क्या वह अनुपादेय है, हेय है ? मेरे मन की बात मन में ही गड़कर नीचे रह गई, ऊपर यह गँवार की बात कर फैल गई। मैंने कहा, "विद्याधर, अपनी बात कहूँगा । कहे बिना रहा जायगा ? नहीं रहा जायगा । पर इसके लिए फिर कभी आना होगा ।... विद्याधर, मैं क्या असहिष्णु हूँ, मैंने क्या जिन्दगी में कुछ कम सहा है, कम जाना है, कम सीखा है ? पर, इस बीती के सामने मैं सबका सब रखा रह गया हूँ 1 किधर से भी मेरा कुछ बस नहीं चलता । उसमें मेरे प्रति ऐसी उपेक्षा बसी है कि जब देखता हूँ, जी होता है पहले गोली मार दूँ, फिर चूम लूँ, फिर अपने सीने में गोली मारकर, सब साध के साथ, आप ठण्डा हो जाऊँ। यही नहीं, तो ऐसा ही कुछ, अब तक कभी का हो जाता । - पर, सोचा, तुम हो । मैं नहीं मरूँगा ।" छैल बिहारी ने कहा, “विनोद, विनोद, यह सब कुछ तुमने
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy