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________________ २२२ जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] नहीं है। हियाव और करूँ, और दया कम पालू, और उसी के पीछे पड़ा रहूँ, तो कुछ और बढ़ सकती है। बढ़-से-बढ़ दो-सौ हो जायगी। पर मुझे ऐसे दो-सौ का क्या करना है। डेढ़-सौ का ठीक-ठियाव मुझ से नहीं होता। मेरे एक लड़का है जो उमर वाला हो गया है। वह मेरी फिकर कर सकता है, सो उसकी मुझे फिकर नहीं है। आप खाने जोग उसके पास है, सो बहुत है। पचास रुपये में हमारा खरच खूब चल जाता है, उसमें से भीड़ पड़े के लिए कुछ बचाकर भी रख सकते हैं। सो मैंने सोचा है, सौ रुपया महीने-के-महीने मैं किसी भगवान् के काम में लगा दिया करूँगा। हर पखवाड़े मैं आप आकर पचास-पचास दे जाया करूँगा। बाबू जी, मुझे बताओ मैं रुपये कहाँ दे जाया करूँ ? ऐसी जगह बताओ जहाँ देकर दो दीनों को सुख मिले, और भगवान् भी आसीरवाद दें, और मेरे चित्त को भी खूब सान्ती मिले।..." विद्याधर ने कहा, “तुमको चाहिए, तुम यह रुपया किसी को न दो । रुपया लेने वाले सब हैं। पर जो देने वाले हैं उन्हें मैं कहता हूँ, न दें।" ___ उसने कहा, "बाबू जी, मेरे चित्त को सान्ती नहीं है। कैसे हो सकता है, मैं नहीं हूँ। मैं तो अपने स्वारथ को देता हूँ।" विद्याधर ने अनाथाश्रम का पता बताकर कहा, "तो जाओ। वहाँ देना, और पचास की रसीद ले आना।" उसने मानो हाथ जोड़कर कहा, "बाबू जी, देकर मैं फिर यहीं आ जाऊँ। मैं रात से पहले गाम नहीं पहुंचना चाहता। आप ठौर दें दो तो सबेरे जाऊँ-रात यहीं काट दूं।" विद्याधर ने कहा, "हाँ, देकर यहाँ आओ, तब देखा जायगा।" वह गँवार बहुत धन्यवाद देता हुआ वहाँ से चला गया।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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