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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] गया, उसे याद मत रखना और उनकी तरफ से कुछ बुराई मन में मत लाना । वह क्या करें, आदत से लाचार हैं। वह न जाने कभी-कभी किस के बस में हो जाते हैं, सो यह सोचकर कल की बात मन में न बिठाना । और देखो, अब तुम चले जाओ । वह आकर तुम्हें देखेंगे, तो गुस्सा हो सकते हैं । वह ऐसे ही हैं। सो, तुम मुझ पर मेहरबानी करके चले जाओ।" ___साधु ने कहा, "मैं बाहर दरवाजे पर बैठता हूँ। आध घण्टे में वह आयेंगे न ? मैं घण्टे भर तक बैठ सकता हूँ। उनके हाथ के मुहब्बत के टुकड़े पाकर ही मैं मानूंगा।" साधु मुड़ने को हुआ। महिला ने रोकते हुए कहा, "बाहर बैठोगे? बाहर क्यों बैठोगे? नहीं, चले जाओ, यहाँ मत रहो । तुम मुझ पर तरस नहीं कर सकते ? मुझ पर तरस खाकर मेरी यह बात नहीं मान सकते ? ऐसी तुम्हें क्या जिद है ? मेरे घर में जो खाने को है, मैं सब तुम्हें देती हूँ फिर तुम यहाँ ठहरोगे किस वास्ते ? रहम करो, हाथ जोड़ती हूँ; चले जाओ।" साधु ने कहा, "चला तो जाऊँगा हो, लेकिन एक घण्टा ठहर सकता हूँ। और तुम्हारा दिया लेने से तो मेरा जी मानेगा नहीं। मुझे तो वह देंगे और प्यार से देंगे। वही दें, इसका मुझे बड़ा लालच है। क्योंकि कल की बात को मैं भूल जाऊँ, मेरे लिए यही काफी नहीं है; वह भी भूल जायँ, इसका भी इन्तजाम मुझे ही करना है; क्योंकि कसूर दरअसल मेरा था।" ___ महिला ने देखा, साधु का तर्क और साधु का इरादा साधारण नहीं है । लेकिन पति की ओर से उनके जी में खटका खटक ही रहा है। बोली, "मैं तुम्हें अब कैसे समझा कर कहूँ ? यह मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कह रही हूँ। अपने लिए इसलिए कह रही हूँ कि जिससे उन्हें फिर ऐसा गुनाह करने का मौका न मिले । तुम्हें देखकर वह अपने बस में न रहे और कुछ कर बैठे,
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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