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________________ साधु की हठ रूप में अन्तःपुर में थीं । साधु का यों जान-बूझकर विपद में भीतर घुस आना, उनकी समझ में न आया। वह बाहर दालान में श्रा गई और बोलीं-"बाबा, तू यहाँ फिर क्यों आफत उठाने चला आया ? कल क्या कम मार पड़ी थी ? या मुझ पर जो मार पड़ी, उसे कम समझता है ?" ___ साधु ने कहा, "मैं अब यह घर छोड़कर और कहीं से कैसे भीख ले सकता हूँ, माई । आज क्या, कल क्या, आता ही रहूँगा। किसी को नाराज करके और नाराज छोड़कर जाऊँगा, तो अपने मालिक को कैसे मुंह दिखाऊँगा ? जिनकी क्रोध की मार खाई, उन्हीं के छिपे प्रेम के टुकड़े खाऊँगा । इसके पहले मेरा सन्तोष कैसे होगा? वह कहाँ गये हैं ?..." ____ साधु की यह बात तो पूरी तरह समझ में नहीं आई; लेकिन जैसे जी को छू गई । मस्तिष्क के विवेचन में तो वह आती भी कैसे ? लेकिन नारी-हृदय की वीणा के एक तार को साधु के शब्द की ध्वनि के संगीत ने जाकर एक मृदु आघात दिया और वहाँ से आर्द्रता की एक लहर उपस्थित होकर काँपती हुई महिला की समग्र आत्मा में और वहाँ से फिर सारे वात-वलय में फैल गई। . महिला ने कहा, “काम से गये हैं। श्राध-पौन घंटे में आते होंगे; लेकिन तुम क्यों चले आये ? मेरी बात मानो, जल्दी चले जाओ । मुझे अपनी फिकर नहीं, लेकिन तुम नाहक़ क्यों मुश्किल में पड़ते हो ? उनकी आदत तुम जानते नहीं। बड़े शक्की हैं। वैसे बड़े अच्छे हैं, पर शक बड़ी जल्दी कर लेते हैं। ऐसी हालत में फिर श्रापा भूल जाते हैं, और न जाने वह क्या-क्या कर बैठते हैं। मैं कहती हूँ, भई, तुम चले जाओ । मुझे बड़ा खटका लगा है । कल की ही बात पर मेरा जी बड़ा दुख रहा है । देखो, मैं तुम से कहती हूँ कि तुम मेरी तरफ देखकर उन्हें माफ कर देना। उन पर नहीं तो मुझ पर तरस खाकर उन्हें माफ कर देना । जो हो
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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