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________________ १०६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] एक बड़ा...आप समझ ही गए होंगे...इससे जाने दीजिए। यानी बावजूद सब बातों के मालूम होता है कि श्रीमती जी अपनी राजीनाराजी के द्वारा जो दूर के मर्म को सहज-भाव से पकड़ लेती हैं वह मेरे लाख हिसाबी और तात्त्विक तक के हाथ नहीं आ पाता। तब ही मानना होता है कि स्त्री को स्त्रीत्व देकर यद्यपि ईश्वर ने उसे सर्वतोभावेन बुद्धि-शून्य बना दिया होता तो भी जगत् की विशेष क्षति न होती क्योंकि स्त्री स्त्रीत्व के ज़ोर से सब अभावों को भरकर पुरुष के आगे तब भी अपराजित ही रहती। खैर जी, वह छोड़ो। मतलब यह कि श्रीमती जी की जिरह पर मन में कुछ सदय होता हुआ मैं वहाँ बैठा रहा । जिरह समाप्त होने पर वह फिर कुछ देर गुम-सुम बैठी रहीं। अनन्तर बोलीं, "मेरा साथ वालों की मिसरानी पर शक है।" ___ मैं विस्मय से बोला, “मिसरानी ?" मैंने कई बार उस मिसरानी को बराबर वाले किराएदारों के यहाँ आते-जाते देखा था। कभी पूरा नहीं देख पाय।। धोती माथे के काफी आगे आई रहती थी। वाचालता उसकी किसी के सामने नहीं आई । चुप आती थी, चुप जाती थी, और किसी के मुख उस की शिकायत मेरे कानों तक नहीं आई थी। इसीलिए मैंने अचरज से कहा, "मिसरानी ?" श्रीमती जी बोली, "ख्याल आता है कि गुसलखाने की तरफ से उसके गुजरने की मुझे कुछ झलक मिली थी। नहीं तो तुम बताओ, कौन हो सकता है ?" निदान हम उस मिसरानी को लेकर बात करने लगे। वह दूसरों के यहाँ से वेतन पाती और वहीं काम करती है । उससे कैसे कुछ पूछा-ताछा जा सकता है ? अजी छोड़ो, जो गया सो गया। किसी पर शक डालकर भला उस को बेइज्जत कैसे किया जाय ?
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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