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________________ सज़ा १८५ मैंने फिर कहा, "क्या कहूँ ?" बोली, "तो मैं कहती हूँ उसका यह काम नहीं है।" कहकर वह चुप हो रहीं। उँगली माथे पर रख चाय की मेज़ के पार फर्श पर आँख गड़ाए जाने वह क्या देखने लगी थी कि एकाएक व्यस्त भाव से बोली, "नहीं, यह काम उसका नहीं हो सकता । हर्गिज नहीं हो सकता। सुनते हो, एक लफ्ज़ भी उससे इस बारे में न कहना। मेरे घर में रहकर उससे कोई कुछ नहीं कह पायगा।" इसके बाद थोड़ी देर जैसे सोच में पड़े रहकर वह फिर पूछताछ करने लगी कि रुपये किस-किस राजा की मूरत के थे और किस सन् के ? नोट छोटे थे या बड़े और क्या उनके नम्बर थे ? पसे ठीक कैसा था ? उसकी किस जेब में क्या था ? 'ओह ! 'जिप' वाला पर्स था। और दस-दस के तीन नोट उसी में थे ? तो ठीक है । यह ठीक है। इस तरह की अपने में उलझी-सी बातें करती हुई वह अय्यर से जिरह करती रहीं। ___ मैं स्त्री-बुद्धि का बहुत कायल नहीं हूँ। शायद कारण यह हो कि मैं विवाहित हूँ । विवाह से पहले लेकिन उस बात को जाने दो। लेकिन विवाह के बाद से स्त्री के मिजाज का मैं इतना अधिक कायल हो गया हूँ कि बुद्धि के कायल होने का मुझ में कहीं स्थान ही नहीं रह गया है। मैं नहीं जानता कि मिजाज़ की तीक्ष्णता और बुद्धि की तीक्ष्णता दो एक-दम दो चीजें हैं कि नहीं। कहींन-कहीं वे आपस में हिली-मिली तो होंगी। नहीं तो समवेदना की सूक्ष्मता से अलग होकर बुद्धि की कुशाग्रता कैसे चल सकती होगी? इसलिए बावजूद इस बात के कि तर्क चलने पर मेरे सामने अपनी श्रेष्ठता का किसी यूनिवर्सिटी का कोई प्रमाण-पत्र वह मेरे आगे पेश नहीं कर सकती और बावजूद इस के कि घड़ी-बेघड़ी उन्हें मैं याद दिलाता रहता हूँ कि मैं अकाउन्टेन्ट-जनरल-आफिस का
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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