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________________ १७४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] __ धन्नू बोला, "अभी न होगा, सो तो मैं भी जानता हूँ पर मैं कहे देता हूँ, होगा तो यही होगा। साधु बने रहकर तुम छह आदमियों का पेट नहीं भर सकते। बात यह है, भूखों रहने की नौबत अभी तुम तक ही आई है । जब तुम्हारे बच्चे रोटी-रोटी चिल्लाएँगे, माँ दाने-दाने के लिए तरसेगी, बहू भरी और गूंगी आँखों से तुम्हें देखेगी, तब देखना है, तुम क्या करते हो । तुम उन्हें मार दे सको, तब तो अच्छा है, तब तो तुम सचमुच साधु बन सकते हो । नहीं तो, नहीं तो, भगवान् न करे, तुम्हें वही करना होगा ।....क्या कहते हो, मेहनत ? मेहनत से पैदा करोगे? वाह लक्खू , अब तक तुमने मेहनत नहीं की, तो क्या और कुछ किया है ? पर कहाँ है वह तुम्हारी मेहनत और उसका फल ? सूख कर तुम काँटा हो गये हो, पैसे-पैसे को तुम मुहताज हो, दाने-दाने के लिए फिक्र कर रहे हो, पीपल के नीचे बसेरा डाले पड़े हो। वह महाजन बड़ी मेहनत करता है न, कि फूलके बोरा बन रहा है। तुम जैसे उसमें तीन बनें। दिन-भर तकिये के सहारे ऐंठता है, और डिग्री लाकर तुम्हारा घर छीन लेता है । यह है तुम्हारी मेहनत !......और हाँ, क्या कहा ?ईमानदारी ? ईमानदारी कहाँ रहती है, सो भी तुम कुछ जानते हो ? ईमानदारी या तो रहती है परमात्मा के पास या बेईमानों के पास । पैसा उसका मालिक है। कोई गरीब कभी ईमानदार सुना है ? और किसी पैसे-वाले को तुम बेईमान कहने की हिम्मत कर सकते हो ? हिम्मत करके देखो, वह गवाहों से अपनी ईमानदारी दुनिया की नाक पर ऐसी साबित करे कि तुम्हें जेल जाना पड़े। बोलो,कौन कह सकता है महाजन बेईमान है और तुम ईमानदार ? ईमान के दो कागज़ उसके पास हैं, एक बही और दूसरी डिग्री! और ईमान का बाप उसके पास है-पैसा ! तुम्हारे पास क्या है ?-कुछ नहीं। इससे साफ साबित है, तुम बेईमान हो । फिर
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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