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________________ चोरी १७३ रही थी, जिसके पास लकड़ी का एक छोटा-सा बक्स था । लकड़ी के बक्स में जवाहिरात हो सकते थे, इसलिए उसे तो बेरोक-टोक जाने देना ठीक न था; परन्तु इसके लिए महाजन को और अदालत दूतों को धन्यवाद दे देना हमारा कर्तव्य है कि उन्होंने हँडियों को और पोटली को नहीं छीना । हम इसको स्वीकार करते हैं कि डिग्री पास रहते उन्हें उनके कपड़े तक उतरवा लेने का अधिकार था, और यदि आवश्यकता होती तो कानून की पृष्ठ - पोषक तमाम डंडा - शक्ति उस अधिकार की रक्षा के लिए प्रस्तुत हो सकती थी, परन्तु उस अधिकार का प्रयोग नहीं किया गया । इसके लिए हम महाजन की विशालहृदयता और चपरासियों के शक्ति-संयम का आभार माने बिना नहीं रह सकते । जब ये घर से खदेड़े गये, अभागे बस्ती के बाहर बड़े मैदान में पहुँचे, तब उन्हें अनुभव हुआ कि कहाँ जाना होगा, क्यो करना होगा, इस पर विचार करना आवश्यक है। लेकिन बहुत कुछ विचार कर चुकने पर भी कुछ निश्चय न हो सका । गाँव, जहाँ इन्हें कुछ आश्रय की उम्मीद थी, छह कोस था और वहाँ पहुँचना सम्भव नहीं, इसलिए सामने के पीपल के पेड़ के तले बसेरा डाल दिया । पेड़ के नीचे बैठा लक्खू सोच रहा था कि पेट में डालने के लिए कहाँ से, क्या, किस तरह जुटाया जाय कि उधर से धन्नू लोधा आता दिखाई दिया। आते ही उसने कहा, "कहो भाई, यहाँ कैसे पड़े हो ?" लक्खू ने अपनी कहानी कह दी । धन्नू ने कहा, "तो भूखों मरोगे ?” लक्खू ने कहा, "क्या करूँ ?” "क्या करूँ ? क्यों ? - हम तो भूखों नहीं मरते ।” लक्खू ने कहा, "न, न, सो मुझसे न होगा ।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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