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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] ___ बड़े तड़के उठकर चश्मे में स्नान करते हुए हम नौ-दस बजे के लगभग ज्वालादेवी पहुँच गये । स्थान अत्यन्त सुरम्य है । पास ही घनी पर्वतमाला है, और मन्दिर के चरणों में है-खिऊ नामक बस्ती । वनस्पति के वैभव के दर्शन के लिए इस स्थान को आदर्श समझिये । पास ही से गहन वन आरम्भ हो जाता है, जहाँ जगहजगह शिकारगाह बने हैं। वन में अच्छा शिकार मिलता है। हम मन्दिर के बाहर आकर चारों ओर फैली प्रकृति की सुललित श्री की बहार लेते रहे । अम्बुलकर ने तान छेड़ी। ऐसे वातावरण में उसके स्वाभाविक मधुर कण्ठ में न जाने क्या, कुछ और वस्तु आ मिलती थी। तब उसका स्वर लहराता हुआ ओस की नाईं जी पर छाकर मानों आर्द्रता की हल्की-हल्की फुहार छोड़ने लगा । हम विभोर हो रहे । किन्तु देर होते-होते हमें यह मालूम हो गया कि इसी तरह से दिन नहीं बीत जायगा। पेट में भी कुछ डालना ही चाहिये । और इसके लिए इस स्वर्ग से हमें उतर कर नीचे धरती पर बसे गाँव में पहुँचकर कुछ चेष्टा भी करनी ही होगी। नीचे उतर कर गाँव की कीच-भरी गली को पार करतेकरते, मानने लगे, कि कब किस भले-मानस की कृपा आप ही हमें हूँढकर हम पर आ बरसे; पर यह होता न दीखा, और आज के लिए ठीक-ठिकाना बनाने के लिए हमने अम्बुलकर को नियुक्त किया। __आगे दो सम्भ्रान्त सज्जन आते दिखलाई पड़े । हिचक से अम्बुलकर को सरोकार नहीं । आगे बढ़कर उसने कहा, “महाराज, हम तीन मूर्ति हैं......" ___ आदमी इस साधुओं की परिभाषिक शब्दावली के चक्कर में पड़कर मूर्ति बन जाते हैं, और इसी प्रकार के और क्या हेर-फेर हो जाते हैं-यह हमने काम चलाने लायक रूप में जान लिया था ।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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