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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग मारते हुए भाग चले । घोड़े झट उस हरित-कोमल घास से अपने भूखे मुख का अभिन्न सम्बन्ध स्थापित कर संतृप्त हुए । हमने जी-तोड़ दौड़ लगाई । देखना था कि बरफ तक पहले कौन पहुँचता है। लेकिन अम्बुलकर, अम्बुलकर है । सबसे आगे पहुँचकर बरफ पर पैर रखता है कि गला फाड़कर किलकी मारता है, "महात्माजी !..." पीछे-ही-पीछे हम थे । हमने कहा, "क्या हुआ ?" इतने में ही उसने दूसरी बार चिल्लाने का मौका निकाल लिया, "महात्माजी!" महात्माजी पीछे मजे-मजे में चले आ रहे थे। बोले, " क्या है ?..." अम्बुलकर ने उछलकर और चिल्लाकर कहा, "महात्माजी ! जल्दी आइये, भाग के !...." तब तक हम दोनों भी पहुँच गये थे । हमने उससे भी अधिक उछलकर इस माँग का समर्थन किया। कहा, "महात्माजी, भागकर आइये।" महात्माजी आये और हमने उन्हें दिखाया तीन नये कोरे रुपये अचक-के-अचक बरफ के किनारे पर अलग-अलग चित्त ऐसे रखे थे, जैसे हमारी बाट ही जोहते हों। महात्माजी ने कहा, “अच्छा !" और हम उस बरफ के पहाड़ के साथ तरह-तरह की शरारत मचाने लगे। दूसरी घटना यों हुई।
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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