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________________ १२० . जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] थे । पेरिस में पाँच-सौ रुपये खर्च कर हवाई जहाज से उनके लिए पानों की एक ढोली भेजी गई थी, पान के वह ऐसे शौकीन थे। न्यूयार्क में तो पान पाने में और भी ज्यादा खर्च किया था। उनसे मिलकर व्यक्ति का सुखी न होना असम्भव था। कुलीनता उनके परिच्छद से और शालीनता उनके तमाम व्यक्तित्व से मानो फूटती रहती थी। अत्यन्त अनुग्रह-पूर्ण प्रेम-भाव से वे सबंसे मिलते थे। लालचन्द ने मेरा उनसे परिचय कराया । उनका नाम मानिकचन्द था। लालचन्द की अनुपस्थिति में उन्होंने मुझ से कहा, "स्वामीजी, इस लालचन्द को समझाइए न। काम-धन्धा छोड़ कर जाने किस फेर में रहता है !" ___मैंने कहा, "आप लोगों के कहने-सुनने का कुछ परिणाम नहीं हाता है क्या ? यों तो लालचन्द बहुत समझदार है।" मानिकचन्द के ऊपर के अोठ में तनिक वक्र पड़ा। उन्होंने कहा, "समझ ही तो उसे खराब कर रही है। अपने अन्दर न समाय वह समझ बिगाड़ ही करती है। आप उससे कहिए, अगर वह चाहे तो उसे अलग दुकान करा दी जाय । घर में बीवी है, बाल-बच्चे हैं। अब समझ न आयेगी; तो आगे क्या होगा ?" मैंने कहा, "ठीक तो है । मैं उससे कहूँगा कि भाई, समझदार होकर समझदारी का रास्ता क्यों छोड़ते हो ?" मानिकचन्द ने कहा, "जाने यह कैसा लड़का है ! हम नहीं चाहते कि वह दुकान में ही लगे। तबियत हो तो दुनिया की सैर करे । कमी तो उसके लिए है नहीं, लेकिन यह वैरागीपना, स्वामी जी, बड़ी बुरी बात है। एक आप हैं, अकेले हैं, पालने-पोसने को कोई साथ बँधा नहीं है; इसलिए आप स्वामी हों, तो हो भी सकते हैं । स्व-पर-उपकार ही अब आपके लिए काम है; लेकिन लालचन्द की ऐसी उमर भी नहीं है, हालत भी नहीं है।"
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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