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________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [ छठा भाग ] सुनकर मैं चुपचाप लौटकर चल दिया। लेकिन घर से बाहर नहीं हुआ हूँगा कि एक चीख मुझ को सुनाई दी। लौटकर आकर देखता हूँ कि प्रियव्रत चादर-वादर फेंककर, पलंग पर उघाड़ा बैठा है। उसके माथे पर चोट का बड़ा-सा नीला दाग़ है, जिसमें से थोड़ा-थोड़ा लहू निकल रहा है। प्रियव्रत हाँफ रहा है और जोरजोर से हाथ फेंक कर कह रहा है कि सब दूर रहो। कोई पास न आओ । मेरी यही सज़ा है, यही सजा है । मालूम हुआ कि कमरे से मेरे ओझल होने पर एक साथ चादर ऊपर फेंक कर उठ कर प्रियव्रत ने ज़ोर से अपना सिर पलंग के पाए पर दे मारा था। देखकर दया चीख पड़ी थी । वही चीख मैंने सुनी होगी। १०० खैर, मैंने प्रियव्रत को आराम से लिटाना चाहा । वह इसमें मेरा प्रतिकार करता रहा। और बस न चला तो वह मुझे नोचनेखसोटने लगा । मैंने उसके प्रतिरोध को बेकार कर ज़ोर से पकड़ कर उसे पलंग पर लिटा दिया । दया को कहा कि पट्टी-बट्टी लावे | घबराये नहीं । प्रियव्रत बेकाबू होकर बालक की भाँति से आया । वह बारबार मेरा हाथ पकड़ कर चूमने लगा। रोते-रोते उसकी हिचकी बँध गई। उसने कहा कि वह मुझे पहचानता है । और कि वह मरना नहीं चाहता, बिल्कुल नहीं चाहता । उसने मुझसे पूछा कि मैं उसे बचा लूँगा न ? मैंने उसे ढाढस बँधाया । और वह बार-बार यही पूछने लगा कि वह मरेगा तो नहीं ? दया, श्री दया, मैं मरना नहीं चाहता । मैंने तुम्हें हमेशा तकलीफ दी। मैं निकम्मा हूँ, लेकिन मैं मरना नहीं चाहता । दया तेरे उपकार का बदला देने के लिए जीना चाहता हूँ । विद्याधर, मैं मरना नहीं चाहता। मैं नए सिरे से
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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